गुरुवार, 7 जून 2012

ग़ज़ल (आजकल का ये समय)



ग़ज़ल (आजकल का ये समय)

सेक्स की रंगीनियों के आज के इस दौर में
स्वार्थ की तालीम अब मिलने लगी स्कूल से 

आगमन नए दौर का आप जिस को कह रहे

आजकल का ये समय भटका हुआ है मूल से 

दर्द का तोहफा  मिला हमको दोस्ती के नाम पर

दोस्तों के बीच में हम जी रहे थे भूल से

प्यार की हर बात से महरूम हो गए आज हम

दर्द की खुशबु भी देखो आ रही है फूल   से

बँट  गयी सारी जमी फिर बँट गया ये आसमान
अब खुदा बँटने लगा है इस तरह की तूल से

चार पल की जिंदगी में चन्द साँसोँ का सफ़र
मिलना तो आखिर है मदन इस धरा की धूल से





ग़ज़ल :
मदन मोहन सक्सेना 

4 टिप्‍पणियां:

  1. बंट गयी सारी जमी फिर बंट गया ये आसमान
    अब खुदा बंटने लगा है इस तरह की तूल से

    Really nice.

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  2. चार पल की जिंदगी में चाँद सांसो का सफ़र
    मिलना तो आखिर है मदन इस धरा की धूल से......bahut sundar

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  3. सुन्दर गजल!!

    वर्ड वेरीफिकेशन हटा में, कमेंट आसान हो जाय।

    और
    "चाँद सांसो का सफ़र" शायद 'चंद सांसों का सफर'होना चाहिए…

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