बुधवार, 4 मई 2016

ग़ज़ल (सब सिस्टम का रोना रोते)

 
 
 
 
 
सुबह हुयी और बोर हो गए
जीवन में अब सार नहीं है

रिश्तें अपना मूल्य खो रहे
अपनों में वो प्यार नहीं है

जो दादा के दादा ने देखा
अब बैसा संसार नहीं है

खुद ही झेली मुश्किल सबने
संकट में परिवार नहीं है

सब सिस्टम का रोना रोते
खुद बदलें ,तैयार नहीं है

मेहनत से किस्मत बनती है
मदन आदमी लाचार नहीं है


ग़ज़ल (सब सिस्टम का रोना रोते)
मदन मोहन सक्सेना

3 टिप्‍पणियां:

  1. सब सिस्टम का रोना रोते
    खुद बदलें, तैयार नहीं है

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (06-05-2016) को "फिर वही फुर्सत के रात दिन" (चर्चा अंक-2334) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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