मंगलवार, 7 अगस्त 2012

ग़ज़ल (आज के हालात )





ग़ज़ल (आज के हालात )

आज के हालत में किस किस से हम शिकवा करें 
हो रही अपनों से क्यों आज यारों  जंग है 

खून भी पानी की माफिक बिक रहा बाजार में
नाम से पहचान होती किस्में किसका रंग है 


सत्य की सुंदर गली में मन नहीं लगता है अब
जा नहीं सकते है उसमें ये तो काफी तंग है


देखकर दुश्मन  भी कहते क्या करे हम आपका
एक तो पहले से घायल गल चुके सब अंग है


बँट  गए है आज हम इस तरह से देखिये
हर तरफ आबाज आती क्या अजीव संग है

जुल्म की हर दास्ताँ को, खामोश होकर सह चुके
ब्यक्त करने का मदन ये क्या अजीव ढंग  है


ग़ज़ल :
मदन मोहन सक्सेना 

गुरुवार, 2 अगस्त 2012

ग़ज़ल (आरजू बनवास की)




ग़ज़ल (आरजू बनवास की)

नरक की अंतिम जमीं तक गिर चुके हैं  आज जो
नापने को कह रहे , हमसे बह  दूरियाँ  आकाश की

इस कदर अनजान हैं  ,हम आज अपने हाल से
खोजने से मिलती नहीं अब गोलिया सल्फास की 

आज हम महफूज है क्यों दुश्मनों के बीच में
दोस्ती आती नहीं है रास अब बहुत ज्यादा पास की

बँट  गयी सारी जमी ,फिर बँट गया ये आसमान
क्यों आज फिर हम बँट गए ज्यों गद्दिया हो तास की

हर जगह महफ़िल सजी पर दर्द भी मिल जायेगा
हर कोई कहने लगा अब आरजू बनवास की

मौत के साये में जीती चार पल की जिंदगी
क्या मदन ये सारी  दुनिया,  है बिरोधाभास की



ग़ज़ल :
मदन मोहन सक्सेना 

सोमवार, 30 जुलाई 2012

ग़ज़ल (अश्क बहके आए हैं )



ग़ज़ल (
अश्क बहके आए हैं )

जाना जिनको कल अपना आज हुए वह  परायेहैं 
दुनियाँ  के सारे गम आज मेरे  पास आए हैं 

ना  पीने का है आज मौसम ,न काली  सी घटाए हैं 
आज फिर से नैनो में क्यों अश्क बहके आए हैं 

रोशनी से आशियाना यारों अक्सर जलता है
अँधेरा मेरे मन को आज खूब ज्यादा भाए है

जब जब देखा मैंने दिल को ,ये मुस्कराके कहता है
और जगह बाक़ी है, जख्म  कम ही पाए हैं 

अब तो  अपनी किस्मत पर रोना भी नहीं आता
दर्दे दिल को पास रखकर हम हमेशा मुस्कराए हैं 




ग़ज़ल :
मदन मोहन सक्सेना 




गुरुवार, 19 जुलाई 2012

ग़ज़ल (नए दौर का आगमन )


ग़ज़ल (नए दौर का आगमन )


आगमन नए दौर का आप जिसको कह रहे
वह सेक्स की रंगीनियों की पैर में जंजीर है

सुन चुके हैं बहुत किस्से वीरता पुरुषार्थ के
हर रोज फिर किसी द्रौपदी का खिंच रहा क्यों चीर है

खून से खेली है होली आज के इस दौर में
कह रहे सब आज ये नहीं मिल रहा अब नीर है

मौत के साये में जीती चार पल की जिन्दगी
ये ब्यथा अपनी नहीं हर एक की ये पीर है

आज के हालत में किस किस से हम बचकर चले
प्रश्न  लगता है सरल पर ये बहुत गंभीर है

चंद  रुपयों की बदौलत बेचकर हर चीज को
आज हम आबाज देते कि  बेचना जमीर है 


ग़ज़ल :
मदन मोहन सक्सेना

सोमवार, 9 जुलाई 2012

ग़ज़ल (वक्त की रफ़्तार )


ग़ज़ल (वक्त    की रफ़्तार )

वक्त    की रफ़्तार  का कुछ भी भरोसा है नहीं
कल तलक था जो सुहाना कल बही विकराल हो

इस तरह से आज पग में फूल से कांटे चुभे है
चांदनी से खौफ लगता ज्यों  कालिमा का जाल हो

ये किसी की बदनसीबी गर नहीं तो और क्या है
याद आने पर किसी की हाल जब बदहाल हो

पास रहकर दूर हैं   और  दूर रहकर पास हैं 
ये गुजारिश है खुदा से  अब मिलन  तत्काल हो

चंद  लम्हों  की धरोहर आज जिनके  पास है
ब्यर्थ  से लगते मदन अब मास  हो या साल हो

ग़ज़ल :
मदन मोहन सक्सेना 

रविवार, 8 जुलाई 2012

ग़ज़ल (ज़ालिम दुनियाँ )



 ग़ज़ल (ज़ालिम दुनियाँ )


ज़ालिम लगी दुनिया हमें हर शख्श  बेगाना लगा
हर पल हमें धोखे मिले अपने ही ऐतबार से

नफरत से की गयी चोट से हर जख्म हमने सह लिया
घायल हुए उस रोज हम जिस रोज मारा प्यार से

प्यार के अहसास से जब जब रहे हम बेख़बर 
तब तब लगा हमको की हम जी रहे बेकार से

इजहार राज ए  दिल का वह जिस रोज मिल करने लगे
उस रोज से हम पा रहे खुशबु भी देखो खार से

जब प्यार से इनकार हो तो इकरार से है वो भला
मजा पाने लगा है अब ये मदन इकरार का इंकार से

क्या कहूँ कि आज कल का ये समय कैसा तो है
आदमी  ब्यापार से तो  प्यार करता ,दूर रहता प्यार से



ग़ज़ल :
मदन मोहन सक्सेना 

गुरुवार, 21 जून 2012

ग़ज़ल (अपनी अपनी किस्मत)



ग़ज़ल (अपनी अपनी किस्मत)


गजब दुनिया बनाई है गजब हैं  लोग दुनिया के
मुलायम मलमली बिस्तर में अक्सर वो  नहीं सोते 

यहाँ  हर रोज सपने  क्यों, दम अपना  तोड़ देते हैं 
नहीं है पास में बिस्तर ,वो  नींदें चैन की सोते 

किसी के पास फुर्सत है  फुर्सत ही रहा करती 
इच्छा है कुछ करने की  पर मौके ही नहीं होते 

जिसे मौका दिया हमने   कुछ न कुछ करेगा वो 
किया कुछ भी नहीं उसने   सपने रोज वो बोते 

नहीं है कोई भी रोता ,  किसी और  के लिए
सब अपनी अपनी किस्मत को लेकर खूब रोते

ग़ज़ल :
मदन मोहन सक्सेना

गुरुवार, 7 जून 2012

ग़ज़ल (आजकल का ये समय)



ग़ज़ल (आजकल का ये समय)

सेक्स की रंगीनियों के आज के इस दौर में
स्वार्थ की तालीम अब मिलने लगी स्कूल से 

आगमन नए दौर का आप जिस को कह रहे

आजकल का ये समय भटका हुआ है मूल से 

दर्द का तोहफा  मिला हमको दोस्ती के नाम पर

दोस्तों के बीच में हम जी रहे थे भूल से

प्यार की हर बात से महरूम हो गए आज हम

दर्द की खुशबु भी देखो आ रही है फूल   से

बँट  गयी सारी जमी फिर बँट गया ये आसमान
अब खुदा बँटने लगा है इस तरह की तूल से

चार पल की जिंदगी में चन्द साँसोँ का सफ़र
मिलना तो आखिर है मदन इस धरा की धूल से





ग़ज़ल :
मदन मोहन सक्सेना 

सोमवार, 4 जून 2012

ग़ज़ल (मुश्किल)


ग़ज़ल (मुश्किल)


दुनियाँ  में जिधर देखो हजारो रास्ते  दीखते
मंजिल जिनसे मिल जाए बो रास्ते नहीं मिलते

किस को गैर कहदे हम और किसको  मान  ले अपना
मिलते हाथ सबसे है दिल से दिल नहीं मिलते

करी थी प्यार की बाते कभी हमने भी फूलो से
शिकायत सबको उनसे है क़ी उनके लब नहीं हिलते

ज़माने की हकीकत को समझ  जाओ तो अच्छा है
ख्बाबो  में भी टूटे दिल सीने पर नहीं सिलते

कहने को तो ख्बाबो में हम उनके साथ रहते है
मुश्किल अपनी ये की हकीक़त में नहीं मिलते




ग़ज़ल :
मदन मोहन सक्सेना 

रविवार, 3 जून 2012

ग़ज़ल (चोट)

ग़ज़ल (चोट)


जालिम लगी दुनिया हमें हर शख्श  बेगाना लगा
हर पल हमें धोखे मिले अपने ही ऐतबार से

नफरत से की गयी चोट से हर जख्म हमने सह लिया
घायल हुए उस रोज हम जिस रोज मारा प्यार से

प्यार के एहसास   से जब जब रहे हम बेखबर
तब तब लगा हमको की हम जी रहे बेकार से

इजहार राजे दिल का बो जिस रोज मिल करने लगे
उस रोज से हम पा रहे खुशबु भी देखो खार से

जब प्यार से इंकार हो तो इकरार से है बो भला
मजा पाने लगा है अब ये मदन इकरार का इंकार से


ग़ज़ल :
मदन मोहन सक्सेना