बुधवार, 20 जुलाई 2016

एक शेर बचपन पर



जब हाथों हाथ लेते थे अपने भी पराये भी
बचपन यार अच्छा था हँसता मुस्कराता था

मदन मोहन सक्सेना

शुक्रवार, 8 जुलाई 2016

मेरी ग़ज़ल जय विजय ,बर्ष -२ , अंक १० ,जुलाई २०१६ में प्रकाशित



प्रिय मित्रों मुझे बताते हुए बहुत ख़ुशी हो रही है कि मेरी ग़ज़ल जय विजय ,बर्ष -२ , अंक १०   ,जुलाई   २०१६ में प्रकाशित हुयी है . आप भी अपनी प्रतिक्रिया से अबगत कराएँ .


 ग़ज़ल (कंक्रीट के जंगल)

कंक्रीटों के जंगल में नहीं लगता है मन अपना
जमीं भी हो गगन भी हो ऐसा घर बनातें हैं

ना ही रोशनी आये ,ना खुशबु ही बिखर पाये
हालत देखकर घर की पक्षी भी लजातें हैं

दीबारें ही दीवारें नजर आये घरों में क्यों
पड़ोसी से मिले नजरें तो कैसे मुहँ बनाते हैं

मिलने का चलन यारों ना जानें कब से गुम अब है
टी बी और नेट से ही समय अपना बिताते हैं

ना दिल में ही जगह यारों ना घर में ही जगह यारों
भूले से भी मेहमाँ को नहीं घर में टिकाते हैं

अब सन्नाटे के घेरे में ,जरुरत भर ही आबाजें
घर में ,दिल की बात दिल में ही यारों अब दबातें हैं


मदन मोहन सक्सेना



शुक्रवार, 24 जून 2016

ग़ज़ल(मुहब्बत)

 ग़ज़ल(मुहब्बत)   

नजर फ़ेर ली है खफ़ा हो गया हूँ
बिछुड़ कर किसी से जुदा हो गया हूँ

मैं किससे करूँ बेबफाई का शिकबा
कि खुद रूठकर बेबफ़ा हो गया हूँ

बहुत उसने चाहा बहुत उसने पूजा
मुहब्बत का मैं देवता हो गया हूँ

बसायी थी जिसने दिलों में मुहब्बत
उसी के लिए क्यों बुरा हो गया हूँ

मेरा नाम अब क्यों तेरे लब पर भी आये
अब मैं अपना नहीं दूसरा हो गया हूँ

मदन सुनाऊँ किसे अब किस्सा ए गम
मुहब्बत में मिटकर फना हो गया हूँ .

ग़ज़ल प्रस्तुति:
मदन मोहन सक्सेना

मंगलवार, 7 जून 2016

मेरी ग़ज़ल जय विजय ,बर्ष -२ , अंक ९ ,जून २०१६ में



प्रिय मित्रों मुझे बताते हुए बहुत ख़ुशी हो रही है कि मेरी ग़ज़ल जय विजय ,
बर्ष -२ , अंक ९  ,जून  २०१६ में प्रकाशित हुयी है . आप भी अपनी प्रतिक्रिया से अबगत कराएँ 






 
सुबह हुयी और बोर हो गए
जीवन में अब सार नहीं है

रिश्तें अपना मूल्य खो रहे
अपनों में वो प्यार नहीं है

जो दादा के दादा ने देखा
अब बैसा संसार नहीं है

खुद ही झेली मुश्किल सबने
संकट में परिवार नहीं है

सब सिस्टम का रोना रोते
खुद बदलें ,तैयार नहीं है

मेहनत से किस्मत बनती है
मदन आदमी लाचार नहीं है



मदन मोहन सक्सेना

गुरुवार, 26 मई 2016

ग़ज़ल (किसी के हाल पर यारों,कौन कब आसूँ बहाता है)




दिल के पास है लेकिन निगाहों से जो ओझल है
ख्बाबों में अक्सर वह हमारे पास आती है

अपनों संग समय गुजरे इससे बेहतर क्या होगा
कोई तन्हा रहना नहीं चाहें मजबूरी बनाती है

किसी के हाल पर यारों,कौन कब आसूँ बहाता है
बिना मेहनत के मंजिल कब किसके हाथ आती है

क्यों हर कोई परेशां है बगल बाले की किस्मत से
दशा कैसी भी अपनी हो किसको रास आती है

दिल की बात दिल में ही दफ़न कर लो तो अच्छा है
पत्थर दिल ज़माने में कहीं ये बात भाती है

भरोसा खुद पर करके जो समय की नब्ज़ को जानें
"मदन " हताशा और नाकामी उनसे दूर जाती है


प्रस्तुति:
मदन मोहन सक्सेना

मंगलवार, 17 मई 2016

एक शेर


एक शेर 




नहीं उम्मीद रक्खो अब किसी से भी ज़माने में 
हुए मशगूल अपने जब अपनों को गिराने में

मदन मोहन सक्सेना

बुधवार, 4 मई 2016

ग़ज़ल (सब सिस्टम का रोना रोते)

 
 
 
 
 
सुबह हुयी और बोर हो गए
जीवन में अब सार नहीं है

रिश्तें अपना मूल्य खो रहे
अपनों में वो प्यार नहीं है

जो दादा के दादा ने देखा
अब बैसा संसार नहीं है

खुद ही झेली मुश्किल सबने
संकट में परिवार नहीं है

सब सिस्टम का रोना रोते
खुद बदलें ,तैयार नहीं है

मेहनत से किस्मत बनती है
मदन आदमी लाचार नहीं है


ग़ज़ल (सब सिस्टम का रोना रोते)
मदन मोहन सक्सेना

बुधवार, 23 मार्च 2016

मेरी ग़ज़ल जय विजय ,बर्ष -२ , अंक ६ ,मार्च २०१६ में



प्रिय मित्रों मुझे बताते हुए बहुत ख़ुशी हो रही है कि मेरी ग़ज़ल जय विजय ,बर्ष -२ , अंक ६  ,
मार्च  २०१६  में प्रकाशित हुयी है . आप भी अपनी प्रतिक्रिया से अबगत कराएँ










ग़ज़ल (इस शहर  में )




इन्सानियत दम  तोड़ती है हर गली हर चौराहें पर
ईट गारे के सिबा इस शहर में रक्खा क्या है

इक नक़ली मुस्कान ही साबित है हर चेहरे पर
दोस्ती प्रेम ज़ज्बात की शहर में कीमत ही क्या है

मुकद्दर है सिकंदर तो सहारे बहुत हैं इस शहर में
शहर  में जो गिर चूका ,उसे बचाने में बचा ही क्या है

शहर  में हर तरफ भीड़ है बदहबासी है अजीब सी
घर में अब सिर्फ दीबारों के सिबा रक्खा क्या है

मौसम से बदलते है रिश्ते इस शहर में आजकल
इस शहर में अपने और गैरों में फर्क रक्खा क्या है


ग़ज़ल (इस शहर  में )

मदन मोहन सक्सेना

गुरुवार, 10 मार्च 2016

ग़ज़ल(हकीकत)




नजरें मिला के नजरें फिराना ,ये   हमने अब तक सीखा नहीं हैं
बादें भुलाकर कसमें मिटाकर ,वह  कहतें है हमसे मुहब्बत यही हैं

बफाओं के बदले बफा न करना ,ये मेरी शुरू से आदत नहीं हैं
चाहत  भुलाकर दिल को दुखाकर ,वह कहतें है हमसे मुहब्बत यही है

बफाओं के किस्से सुनाते थे हमको,बादें निभाएंगे कहते थे हमसे
मौके पे साथ भी छोड़ा उन्ही ने ,अब कहते है हमसे जरुरत नहीं है 

दुनियाँ में मिलता है सब कुछ ,गम ही मिला है मुझे इस जहाँ से 
कहने को दुनिया बाले कहें कुछ,मेरे लिए तो हकीकत यही है

खुश रहें बह सदा और फूले फलें ,गम का उन पर भी साया न हो
दिल से मेरे हरदम निकलते दुआ है,खुदा से मेरी इबादत यही है

ग़ज़ल(हकीकत)
मदन मोहन सक्सेना

शुक्रवार, 4 मार्च 2016

वक्त बक्त की बात (मेरे नौ शेर )


 
(एक )
 

अपने थे , वक़्त भी था , वक़्त वह और था यारों
वक़्त पर भी नहीं अपने बस मजबूरी का रेला है

 

(दो )
 

वक़्त की रफ़्तार का कुछ भी भरोसा है नहीं
कल तलक था जो सुहाना कल बही विकराल हो

 

(तीन )

बक्त के साथ बहना ही असल तो यार जीबन है
बक्त को गर नहीं समझे बक्तफिर रूठ जाता है

 

(चार )
 

बक्त कब  किसका हुआ जो अब  मेरा होगा
बुरे बक्त को जानकर सब्र किया मैनें


 

(पांच)

बक्त के साथ बहने का मजा कुछ और है प्यारे
बरना, रिश्तें काँच से नाजुक इनको टूट जाना है

 

(छह )

वक्त की मार सबको सिखाती सबक़ है
ज़िन्दगी चंद सांसों की लगती जुआँ है

 

(सात)
 

मेहनत से बदली "मदन " देखो किस्मत
बुरे वक्त में ज़माना किसका हुआ है


(आठ)

बक्त ये आ गया कैसा कि मिलता अब समय ना है
रिश्तों को निभाने के अब हालात बदले हैं


(नौ)
ना खाने को ना पीने को ,ना दो पल चैन जीने को
ये कैसा वक़्त है यारों ,   ये जल्दी से गुजर जाये




वक्त बक्त की बात  (मेरे नौ शेर )

मदन मोहन सक्सेना