सोमवार, 22 अगस्त 2016

ग़ज़ल( समय से कौन जीता है समय ने खेल खेले हैं)





ग़ज़ल( समय से कौन जीता है समय ने खेल खेले हैं)

अपनी जिंदगी गुजारी है ख्बाबों के ही सायें में 
ख्बाबों  में तो अरमानों के जाने कितने मेले हैं  

भुला पायेंगें कैसे हम ,जिनके प्यार के खातिर
सूरज चाँद की माफिक हम दुनिया में अकेले हैं  

महकता है जहाँ सारा मुहब्बत की बदौलत ही
मुहब्बत को निभाने में फिर क्यों सारे झमेले हैं  

ये उसकी बदनसीबी गर ,नहीं तो और फिर क्या है
जिसने पाया है बहुत थोड़ा ज्यादा गम ही झेले हैं  

मुश्किल यार ये कहना  किसका अब समय कैसा
समय से कौन जीता है समय ने खेल खेले हैं। 



मदन मोहन सक्सेना

गुरुवार, 11 अगस्त 2016

मेरी ग़ज़ल जय विजय ,बर्ष -२ , अंक ११ ,अगस्त २०१६ में प्रकाशित


प्रिय मित्रों मुझे बताते हुए बहुत ख़ुशी हो रही है कि मेरी ग़ज़ल जय विजय ,बर्ष -२ , अंक ११ ,अगस्त    २०१६ में प्रकाशित हुयी है . आप भी अपनी प्रतिक्रिया से अबगत कराएँ .





ग़ज़ल  (बचपन यार अच्छा था)

जब हाथों हाथ लेते थे अपने भी पराये भी
बचपन यार अच्छा था हँसता मुस्कराता था


बारीकी जमाने की, समझने में उम्र गुज़री
भोले भाले चेहरे में सयानापन समाता था


मिलते हाथ हैं लेकिन दिल मिलते नहीं यारों
मिलाकर हाथ, पीछे से मुझको मार जाता था


सुना है आजकल कि बह नियमों को बनाता है
बचपन में गुरूजी से जो अक्सर मार खाता था


उधर माँ बाप तन्हा थे इधर बेटा अकेला था
पैसे की ललक देखो दिन कैसे दिखाता था


जिसे देखे हुआ अर्सा , उसका हाल जब पूछा
बाकी ठीक है कहकर वह ताना मार जाता था






मेरी ग़ज़ल जय विजय ,बर्ष -२ , अंक ११ ,अगस्त    २०१६ में प्रकाशित


मदन मोहन सक्सेना

सोमवार, 8 अगस्त 2016

( ग़ज़ल ) हर पल याद रहती है निगाहों में बसी सूरत




सजा  क्या खूब मिलती है किसी   से   दिल  लगाने  की
तन्हाई  की  महफ़िल  में  आदत  हो  गयी   गाने  की  

हर  पल  याद  रहती  है  निगाहों  में  बसी  सूरत  
तमन्ना  अपनी  रहती  है  खुद  को  भूल  जाने  की  

उम्मीदों   का  काजल    जब  से  आँखों  में  लगाया  है
कोशिश    पूरी  होती है   पत्थर  से  प्यार  पाने  की  

अरमानो  के  मेले  में  जब  ख्बाबों   के  महल   टूटे  
बारी  तब  फिर  आती  है  अपनों  को  आजमाने  की 

मर्जे  इश्क  में   अक्सर हुआ करता है ऐसा भी 
जीने पर हुआ करती है ख्वाहिश  मौत पाने की

( ग़ज़ल )हर   पल  याद  रहती  है  निगाहों  में  बसी  सूरत 
मदन मोहन सक्सेना

बुधवार, 3 अगस्त 2016

ग़ज़ल (निगाहों में बसी सूरत फिर उनको क्यों तलाशे है )





कुछ इस तरह से हमने अपनी जिंदगी गुजारी है
जीने की तमन्ना है न मौत हमको प्यारी है

लाचारी का दामन आज हमने थाम रक्खा है
उनसे किस तरह कह दें की उनकी सूरत प्यारी है

निगाहों में बसी सूरत फिर उनको क्यों तलाशे है
ना जाने ऐसा क्यों होता और कैसी बेकरारी है

बादल बेरुखी के दिखने पर भी क्यों मुहब्बत में
हमको ऐसा क्यों लगता की उनसे अपनी यारी है

परायी लगती दुनिया में गम अपने ही लगते हैं
आई अब मुहब्बत में सजा पाने की बारी है

ये सांसे ,जिंदगी और दिल सब कुछ तो पराया है
ब्याकुल अब मदन ये है की होती क्यों उधारी है

ग़ज़ल (निगाहों में बसी सूरत फिर उनको क्यों तलाशे है )
मदन मोहन सक्सेना

शुक्रवार, 29 जुलाई 2016

मेरी पोस्ट , ग़ज़ल (दोस्ती आती नहीं है रास अब बहुत ज्यादा पास की)जागरण जंक्शन में प्रकाशित



प्रिय मित्रों मुझे बताते हुए बहुत ख़ुशी हो रही है कि मेरी पोस्ट ,
ग़ज़ल (दोस्ती आती नहीं है रास अब बहुत ज्यादा पास की)जागरण जंक्शन में प्रकाशित हुयी है , बहुत बहुत आभार जागरण जंक्शन टीम। आप भी अपनी प्रतिक्रिया से अबगत कराएँ .

 

 
 
 http://madansbarc.jagranjunction.com/2016/07/12/%E0%A5%9A%E0%A5%9B%E0%A4%B2-%E0%A4%A6%E0%A5%8B%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A5%80-%E0%A4%86%E0%A4%A4%E0%A5%80-%E0%A4%A8%E0%A4%B9%E0%A5%80%E0%A4%82-%E0%A4%B9%E0%A5%88-%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%B8/
 
 ग़ज़ल (दोस्ती आती नहीं है रास अब बहुत ज्यादा पास की) 

नरक की अंतिम जमीं तक गिर चुके हैं आज जो
नापने को कह रहे , हमसे बह दूरियाँ आकाश की
 


इस कदर भटकें हैं युबा आज के इस दौर में
खोजने से मिलती नहीं अब गोलियां सल्फ़ास की
 

  
आज हम महफूज है क्यों दुश्मनों के बीच में
दोस्ती आती नहीं है रास अब बहुत ज्यादा पास की
 


बँट गयी सारी जमी ,फिर बँट गया ये आसमान
क्यों आज फिर हम बँट गए ज्यों गड्डियां हो तास की
 


हर जगह महफ़िल सजी पर दर्द भी मिल जायेगा
अब हर कोई कहने लगा है आरजू बनवास की
 


मौत के साये में जीती चार पल की जिंदगी
क्या मदन ये सारी दुनिया, है बिरोधाभास की

 
मेरी पोस्ट , ग़ज़ल (दोस्ती आती नहीं है रास अब बहुत ज्यादा पास की)जागरण जंक्शन में प्रकाशित


मदन मोहन सक्सेना

मेरी पोस्ट , ग़ज़ल (मौत के साये में जीती चार पल की जिन्दगी)जागरण जंक्शन में प्रकाशित

प्रिय मित्रों मुझे बताते हुए बहुत ख़ुशी हो रही है कि मेरी पोस्ट , 
ग़ज़ल (मौत के साये में जीती चार पल की जिन्दगी)जागरण जंक्शन में प्रकाशित हुयी है , बहुत बहुत आभार जागरण जंक्शन टीम। आप भी अपनी प्रतिक्रिया से अबगत कराएँ .

 
 
Dear User,
 
 
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ग़ज़ल (मौत के साये में जीती चार पल की जिन्दगी)
आगमन नए दौर का आप जिसको कह रहे
वो सेक्स की रंगीनियों की पैर में जंजीर है
सुन चुके हैं बहुत किस्से वीरता पुरुषार्थ के
हर रोज फिर किसी द्रौपदी का खिंच रहा क्यों चीर है
खून से खेली है होली आज के इस दौर में
कह रहे सब आज ये नहीं मिल रहा अब नीर है
मौत के साये में जीती चार पल की जिन्दगी
ये ब्यथा अपनी नहीं हर एक की ये पीर है
आज के हालत में किस किस से हम बचकर चले
प्रश्न लगता है सरल पर ये बहुत गंभीर है
चंद रुपयों की बदौलत बेचकर हर चीज को
आज सब आबाज देते कि बेचना जमीर है


मेरी पोस्ट , ग़ज़ल (मौत के साये में जीती चार पल की  जिन्दगी) जागरण जंक्शन में प्रकाशित


मदन मोहन सक्सेना

बुधवार, 20 जुलाई 2016

एक शेर बचपन पर



जब हाथों हाथ लेते थे अपने भी पराये भी
बचपन यार अच्छा था हँसता मुस्कराता था

मदन मोहन सक्सेना

शुक्रवार, 8 जुलाई 2016

मेरी ग़ज़ल जय विजय ,बर्ष -२ , अंक १० ,जुलाई २०१६ में प्रकाशित



प्रिय मित्रों मुझे बताते हुए बहुत ख़ुशी हो रही है कि मेरी ग़ज़ल जय विजय ,बर्ष -२ , अंक १०   ,जुलाई   २०१६ में प्रकाशित हुयी है . आप भी अपनी प्रतिक्रिया से अबगत कराएँ .


 ग़ज़ल (कंक्रीट के जंगल)

कंक्रीटों के जंगल में नहीं लगता है मन अपना
जमीं भी हो गगन भी हो ऐसा घर बनातें हैं

ना ही रोशनी आये ,ना खुशबु ही बिखर पाये
हालत देखकर घर की पक्षी भी लजातें हैं

दीबारें ही दीवारें नजर आये घरों में क्यों
पड़ोसी से मिले नजरें तो कैसे मुहँ बनाते हैं

मिलने का चलन यारों ना जानें कब से गुम अब है
टी बी और नेट से ही समय अपना बिताते हैं

ना दिल में ही जगह यारों ना घर में ही जगह यारों
भूले से भी मेहमाँ को नहीं घर में टिकाते हैं

अब सन्नाटे के घेरे में ,जरुरत भर ही आबाजें
घर में ,दिल की बात दिल में ही यारों अब दबातें हैं


मदन मोहन सक्सेना



शुक्रवार, 24 जून 2016

ग़ज़ल(मुहब्बत)

 ग़ज़ल(मुहब्बत)   

नजर फ़ेर ली है खफ़ा हो गया हूँ
बिछुड़ कर किसी से जुदा हो गया हूँ

मैं किससे करूँ बेबफाई का शिकबा
कि खुद रूठकर बेबफ़ा हो गया हूँ

बहुत उसने चाहा बहुत उसने पूजा
मुहब्बत का मैं देवता हो गया हूँ

बसायी थी जिसने दिलों में मुहब्बत
उसी के लिए क्यों बुरा हो गया हूँ

मेरा नाम अब क्यों तेरे लब पर भी आये
अब मैं अपना नहीं दूसरा हो गया हूँ

मदन सुनाऊँ किसे अब किस्सा ए गम
मुहब्बत में मिटकर फना हो गया हूँ .

ग़ज़ल प्रस्तुति:
मदन मोहन सक्सेना

मंगलवार, 7 जून 2016

मेरी ग़ज़ल जय विजय ,बर्ष -२ , अंक ९ ,जून २०१६ में



प्रिय मित्रों मुझे बताते हुए बहुत ख़ुशी हो रही है कि मेरी ग़ज़ल जय विजय ,
बर्ष -२ , अंक ९  ,जून  २०१६ में प्रकाशित हुयी है . आप भी अपनी प्रतिक्रिया से अबगत कराएँ 






 
सुबह हुयी और बोर हो गए
जीवन में अब सार नहीं है

रिश्तें अपना मूल्य खो रहे
अपनों में वो प्यार नहीं है

जो दादा के दादा ने देखा
अब बैसा संसार नहीं है

खुद ही झेली मुश्किल सबने
संकट में परिवार नहीं है

सब सिस्टम का रोना रोते
खुद बदलें ,तैयार नहीं है

मेहनत से किस्मत बनती है
मदन आदमी लाचार नहीं है



मदन मोहन सक्सेना