कभी अपनों से अनबन है कभी गैरों से अपनापन दिखाए कैसे कैसे रँग मुझे अब आज जीबन है ना रिश्तों की ही कीमत है ना नातें अहमियत रखतें रिश्तें हैं उसी से आज जिससे मिल सके धन है सियासत में नहीं युबा , बुढ़ापा काम पाता है समय ये आ गया कैसा दिल में आज उलझन है सच्ची बात किसको आज सुनना अच्छी लगती है सच्ची बात सुनने को ब्याकुल अब हुआ मन है जीबन के सफ़र में जो मुसीबत में भी अपना हो मदन साँसें जिंदगी मेरी उसको ही समर्पन है
प्रिय मित्रों मुझे बताते हुए बहुत
ख़ुशी हो रही है कि मेरी ग़ज़ल जय विजय ,बर्ष -१ , अंक १२ ,सितम्बर २०१५ में प्रकाशित हुयी है .
आप भी अपनी प्रतिक्रिया से अबगत कराएँ .
ग़ज़ल (इस शहर में )
इन्सानियत दम तोड़ती है हर गली हर चौराहें पर ईट गारे के सिबा इस शहर में रक्खा क्या है
इक नक़ली मुस्कान ही साबित है हर चेहरे पर दोस्ती प्रेम ज़ज्बात की शहर में कीमत ही क्या है
मुकद्दर है सिकंदर तो सहारे बहुत हैं इस शहर में शहर में जो गिर चूका ,उसे बचाने में बचा ही क्या है
शहर में हर तरफ भीड़ है बदहबासी है अजीब सी घर में अब सिर्फ दीबारों के सिबा रक्खा क्या है
मौसम से बदलते है रिश्ते इस शहर में आजकल इस शहर में अपने और गैरों में फर्क रक्खा क्या है
ग़ज़ल (ये रिश्तें) ये रिश्तें काँच से नाजुक जरा सी चोट पर टूटे बिना रिश्तों के क्या जीवन ,रिश्तों को संभालों तुम जिसे देखो बही मुँह पर ,क्यों मीठी बात करता है सच्चा क्या खरा क्या है जरा इसको खँगालों तुम हर कोई मिला करता बिछड़ने को ही जीबन में जीबन के सफ़र में जो ,मिले अपना बना लो तुम सियासत आज ऐसी है नहीं सुनती है जनता की अपनी बात कैसे भी सियासत को बता लो तुम अगर महफूज़ रहकर के बतन महफूज रखना है मदन ,अपने नौनिहालों हो बिगड़ने से संभालों तुम प्रस्तुति: मदन मोहन सक्सेना