मंगलवार, 15 दिसंबर 2015

मेरी ग़ज़ल जय विजय ,बर्ष -२ , अंक ३ ,दिसम्बर २०१५ में प्रकाशित


प्रिय मित्रों मुझे बताते हुए बहुत ख़ुशी हो रही है कि मेरी ग़ज़ल जय विजय ,बर्ष -२ , अंक ३  ,दिसम्बर   २०१५ में
प्रकाशित हुयी है . आप भी अपनी प्रतिक्रिया से अबगत कराएँ .








ग़ज़ल (माँ का एक सा चेहरा)

बदलते बक्त में मुझको दिखे बदले हुए चेहरे
माँ का एक सा चेहरा , मेरे मन में पसर जाता

नहीं देखा खुदा को है ना ईश्वर से मिला मैं हुँ
मुझे माँ के ही चेहरे मेँ खुदा यारों नजर आता

मुश्किल से निकल आता, करता याद जब माँ को
माँ कितनी दूर हो फ़िर भी दुआओं में असर आता

उम्र गुजरी ,जहाँ देखा, लिया है स्वाद बहुतेरा
माँ के हाथ का खाना ही मेरे मन में उतर पाता

खुदा तो आ नहीं सकता ,हर एक के तो बचपन में
माँ की पूज ममता से अपना जीबन , ये संभर जाता

जो माँ की कद्र ना करते ,नहीं अहसास उनको है
क्या खोया है जीबन में, समय उनका ठहर जाता


मदन मोहन सक्सेना

शुक्रवार, 13 नवंबर 2015

ग़ज़ल(बहुत मुश्किल )





ग़ज़ल(बहुत मुश्किल )


अँधेरे में रहा करता है साया साथ अपने पर
बिना जोखिम उजाले में है रह पाना बहुत मुश्किल 

ख्बाबो और यादों की गली में उम्र गुजारी है
समय के साथ दुनिया में है रह पाना बहुत मुश्किल

कहने को तो कह लेते है अपनी बात सबसे हम
जुबां से दिल की बातो को है कह पाना बहुत मुश्किल 

ज़माने से मिली ठोकर तो अपना हौसला बढता
अपनों से मिली ठोकर तो सह पाना बहुत मुश्किल 

कुछ पाने की तमन्ना में हम खो देते बहुत कुछ है 
क्या खोया और क्या पाया  कह पाना बहुत मुश्किल


ग़ज़ल :
मदन मोहन सक्सेना 

मंगलवार, 3 नवंबर 2015

मेरी ग़ज़ल जय विजय ,बर्ष -२ , अंक २ ,नवम्बर २०१५ में


प्रिय मित्रों मुझे बताते हुए बहुत ख़ुशी हो रही है कि मेरी ग़ज़ल जय विजय ,बर्ष -२ , अंक २  ,नवम्बर  २०१५ में
प्रकाशित हुयी है . आप भी अपनी प्रतिक्रिया से अबगत कराएँ .

 


ग़ज़ल (दुआ)

हुआ इलाज भी मुश्किल ,नहीं मिलती दबा असली
दुआओं का असर होता दुआ से काम लेता हूँ

मुझे फुर्सत नहीं यारों कि माथा टेकुं दर दर पे
अगर कोई डगमगाता है उसे मैं थाम लेता हूँ

खुदा का नाम लेने में क्यों मुझसे देर हो जाती
खुदा का नाम से पहले ,मैं उनका नाम लेता हूँ

मुझे इच्छा नहीं यारों कि  मेरे पास दौलत हो
सुकून हो चैन हो दिल को इसी से काम लेता हूँ

सब कुछ तो बिका करता मजबूरी के आलम में
मैं सांसों के जनाज़े को सुबह से शाम लेता हूँ

सांसे है तो जीवन है तभी है मूल्य मेहनत का
जितना हो  जरुरी बस उसी का दाम लेता हूँ









ग़ज़ल :
मदन मोहन सक्सेना




सोमवार, 2 नवंबर 2015

दो शेर













दो शेर 



प्रथम :


अब सन्नाटे के घेरे में जरुरत भर ही आबाजें
घर में ,दिल की बात दिल में ही यारों अब दबातें हैं


 दूसरा : 

इन्सानियत दम  तोड़ती है हर गली हर चौराहें पर
ईट गारे के सिबा इस शहर में रक्खा क्या है










मदन मोहन सक्सेना

सोमवार, 26 अक्तूबर 2015

ग़ज़ल(खुदा जैसा ही वह होगा)








 
वक़्त  की साजिश समझ कर, सब्र करना सीखियें
दर्द से ग़मगीन वक़्त यूँ  ही गुजर जाता है 

जीने का नजरिया तो, मालूम है उसी को वस 
अपना गम भुलाकर जो हमेशा मुस्कराता है 

अरमानों के सागर में ,छिपे चाहत के मोती को 
बेगानों की दुनिया में ,कोई अकेला जान पाता है

शरीफों की शरारत का नजारा हमने देखा है
मिलाता जिनसे नजरें है ,उसी का दिल चुराता है

ना  जाने कितनी यादों  के तोहफे हमको दे डाले
खुदा जैसा ही वह  होगा ,जो दे के भूल जाता है

मर्ज ऐ इश्क में बाज़ी लगती हाथ उसके है 
दलीलों की कसौटी के ,जो जितने  पार जाता है    

ग़ज़ल(खुदा जैसा ही वह  होगा)

 
मदन मोहन सक्सेना