मंगलवार, 12 जनवरी 2016

मेरी ग़ज़ल जय विजय ,बर्ष -२ , अंक ४ ,जनबरी २०१६ में



प्रिय मित्रों मुझे बताते हुए बहुत ख़ुशी हो रही है कि मेरी ग़ज़ल जय विजय ,बर्ष -२ , अंक ४   ,
जनबरी  २०१६  में प्रकाशित हुयी है . आप भी अपनी प्रतिक्रिया से अबगत कराएँ .






ग़ज़ल (हक़ीकत)

बह हर बात को मेरी क्यों दबाने लगते हैं
जब हक़ीकत हम उनको समझाने लगते हैं

जिस गलती पर हमको बह समझाने लगते है
बह उस गलती को फिर क्यों दोहराने लगते हैं

दर्द आज खिंच कर मेरे पास आने लगते हैं
शायद दर्द से अपने रिश्ते पुराने लगते हैं

क्यों मुहब्बत के गज़ब अब फ़साने लगते हैं
आज जरुरत पर रिश्तें लोग बनाने लागतें हैं

दोस्त अपने आज सब क्यों बेगाने लगते हैं
मदन दुश्मन आज सारे जाने पहचाने लगते है

उनकी मुहब्बत का असर कुछ ऐसा हुआ है 
ख्याल आने पे बिन बजह हम मुस्कराने लगते हैं। 


ग़ज़ल:
मदन मोहन सक्सेना

मंगलवार, 22 दिसंबर 2015

ग़ज़ल ( दर्द से मेरे रिश्ते पुराने लगतें हैं)




 
वह  हर बात को मेरी क्यों दबाने लगते हैं
जब हकीकत हम उनको समझाने लगते हैं

जिस गलती पर हमको वह  समझाने लगते है.
बही गलती को फिर वह  दोहराने लगते हैं

आज दर्द खिंच कर मेरे पास आने लगतें हैं
शायद दर्द से मेरे रिश्ते पुराने लगतें हैं

दोस्त अपने आज सब क्यों बेगाने  लगतें हैं
मदन दुश्मन आज सारे जाने पहचाने लगते हैं

उनकी मुहब्ब्बत का असर कुछ ऐसा हुआ है
ख्याल आने पे बिन बजह हम मुस्कराने लगते हैं

 

ग़ज़ल ( दर्द से मेरे रिश्ते पुराने लगतें हैं)
मदन मोहन सक्सेना

मंगलवार, 15 दिसंबर 2015

मेरी ग़ज़ल जय विजय ,बर्ष -२ , अंक ३ ,दिसम्बर २०१५ में प्रकाशित


प्रिय मित्रों मुझे बताते हुए बहुत ख़ुशी हो रही है कि मेरी ग़ज़ल जय विजय ,बर्ष -२ , अंक ३  ,दिसम्बर   २०१५ में
प्रकाशित हुयी है . आप भी अपनी प्रतिक्रिया से अबगत कराएँ .








ग़ज़ल (माँ का एक सा चेहरा)

बदलते बक्त में मुझको दिखे बदले हुए चेहरे
माँ का एक सा चेहरा , मेरे मन में पसर जाता

नहीं देखा खुदा को है ना ईश्वर से मिला मैं हुँ
मुझे माँ के ही चेहरे मेँ खुदा यारों नजर आता

मुश्किल से निकल आता, करता याद जब माँ को
माँ कितनी दूर हो फ़िर भी दुआओं में असर आता

उम्र गुजरी ,जहाँ देखा, लिया है स्वाद बहुतेरा
माँ के हाथ का खाना ही मेरे मन में उतर पाता

खुदा तो आ नहीं सकता ,हर एक के तो बचपन में
माँ की पूज ममता से अपना जीबन , ये संभर जाता

जो माँ की कद्र ना करते ,नहीं अहसास उनको है
क्या खोया है जीबन में, समय उनका ठहर जाता


मदन मोहन सक्सेना

शुक्रवार, 13 नवंबर 2015

ग़ज़ल(बहुत मुश्किल )





ग़ज़ल(बहुत मुश्किल )


अँधेरे में रहा करता है साया साथ अपने पर
बिना जोखिम उजाले में है रह पाना बहुत मुश्किल 

ख्बाबो और यादों की गली में उम्र गुजारी है
समय के साथ दुनिया में है रह पाना बहुत मुश्किल

कहने को तो कह लेते है अपनी बात सबसे हम
जुबां से दिल की बातो को है कह पाना बहुत मुश्किल 

ज़माने से मिली ठोकर तो अपना हौसला बढता
अपनों से मिली ठोकर तो सह पाना बहुत मुश्किल 

कुछ पाने की तमन्ना में हम खो देते बहुत कुछ है 
क्या खोया और क्या पाया  कह पाना बहुत मुश्किल


ग़ज़ल :
मदन मोहन सक्सेना 

मंगलवार, 3 नवंबर 2015

मेरी ग़ज़ल जय विजय ,बर्ष -२ , अंक २ ,नवम्बर २०१५ में


प्रिय मित्रों मुझे बताते हुए बहुत ख़ुशी हो रही है कि मेरी ग़ज़ल जय विजय ,बर्ष -२ , अंक २  ,नवम्बर  २०१५ में
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ग़ज़ल (दुआ)

हुआ इलाज भी मुश्किल ,नहीं मिलती दबा असली
दुआओं का असर होता दुआ से काम लेता हूँ

मुझे फुर्सत नहीं यारों कि माथा टेकुं दर दर पे
अगर कोई डगमगाता है उसे मैं थाम लेता हूँ

खुदा का नाम लेने में क्यों मुझसे देर हो जाती
खुदा का नाम से पहले ,मैं उनका नाम लेता हूँ

मुझे इच्छा नहीं यारों कि  मेरे पास दौलत हो
सुकून हो चैन हो दिल को इसी से काम लेता हूँ

सब कुछ तो बिका करता मजबूरी के आलम में
मैं सांसों के जनाज़े को सुबह से शाम लेता हूँ

सांसे है तो जीवन है तभी है मूल्य मेहनत का
जितना हो  जरुरी बस उसी का दाम लेता हूँ









ग़ज़ल :
मदन मोहन सक्सेना