प्रिय मित्रों मुझे बताते हुए बहुत
ख़ुशी हो रही है कि मेरी ग़ज़ल जय विजय ,बर्ष -२ , अंक ४ ,जनबरी २०१६ में प्रकाशित हुयी है .
आप भी अपनी प्रतिक्रिया से अबगत कराएँ .
ग़ज़ल (हक़ीकत)
बह हर बात को मेरी क्यों दबाने लगते हैं जब हक़ीकत हम उनको समझाने लगते हैं
जिस गलती पर हमको बह समझाने लगते है बह उस गलती को फिर क्यों दोहराने लगते हैं
दर्द आज खिंच कर मेरे पास आने लगते हैं शायद दर्द से अपने रिश्ते पुराने लगते हैं
क्यों मुहब्बत के गज़ब अब फ़साने लगते हैं आज जरुरत पर रिश्तें लोग बनाने लागतें हैं
दोस्त अपने आज सब क्यों बेगाने लगते हैं मदन दुश्मन आज सारे जाने पहचाने लगते है उनकी मुहब्बत का असर कुछ ऐसा हुआ है ख्याल आने पे बिन बजह हम मुस्कराने लगते हैं।
प्रिय मित्रों मुझे बताते हुए बहुत
ख़ुशी हो रही है कि मेरी ग़ज़ल जय विजय ,बर्ष -२ , अंक ३ ,दिसम्बर २०१५ में प्रकाशित हुयी है .
आप भी अपनी प्रतिक्रिया से अबगत कराएँ .
ग़ज़ल (माँ का एक सा चेहरा)
बदलते बक्त में मुझको दिखे बदले हुए चेहरे माँ का एक सा चेहरा , मेरे मन में पसर जाता
नहीं देखा खुदा को है ना ईश्वर से मिला मैं हुँ मुझे माँ के ही चेहरे मेँ खुदा यारों नजर आता
मुश्किल से निकल आता, करता याद जब माँ को माँ कितनी दूर हो फ़िर भी दुआओं में असर आता
उम्र गुजरी ,जहाँ देखा, लिया है स्वाद बहुतेरा माँ के हाथ का खाना ही मेरे मन में उतर पाता
खुदा तो आ नहीं सकता ,हर एक के तो बचपन में माँ की पूज ममता से अपना जीबन , ये संभर जाता
जो माँ की कद्र ना करते ,नहीं अहसास उनको है क्या खोया है जीबन में, समय उनका ठहर जाता