ग़ज़ल (बचपन यार अच्छा था)
जब हाथों हाथ लेते थे अपने भी पराये भी
बचपन यार अच्छा था हँसता मुस्कराता था
बारीकी जमाने की, समझने में उम्र गुज़री
भोले भाले चेहरे में सयानापन समाता था
मिलते हाथ हैं लेकिन दिल मिलते नहीं यारों
मिलाकर हाथ, पीछे से मुझको मार जाता था
सुना है आजकल कि बह नियमों को बनाता है
बचपन में गुरूजी से जो अक्सर मार खाता था
उधर माँ बाप तन्हा थे इधर बेटा अकेला था
पैसे की ललक देखो दिन कैसे दिखाता था
जिसे देखे हुआ अर्सा , उसका हाल जब पूछा
बाकी ठीक है कहकर वह ताना मार जाता था
मदन मोहन सक्सेना
रिश्तें नातें प्यार बफ़ा से
सबको अब इन्कार हुआ
बंगला ,गाड़ी ,बैंक तिजोरी
इनसे सबको प्यार हुआ
जिनकी ज़िम्मेदारी घर की
वह सात समुन्द्र पार हुआ
इक घर में दस दस घर देखें
अज़ब गज़ब सँसार हुआ
मिलने की है आशा जिससे
उस से सब को प्यार हुआ
ब्यस्त हुए तव बेटे बेटी
बूढ़ा जब वीमार हुआ
ग़ज़ल (अजब गजब सँसार )
मदन मोहन सक्सेना
गर दबा नहीं है दर्द की तुझ पे
दिल में दर्द जगाता क्यों हैं
जो बीच सफर में साथ छोड़ दे
उन अपनों से मिलबाता क्यों हैं
क्यों भूखा नंगा ब्याकुल बचपन
पत्थर भर पेट खाता क्यों हैं
अपने ,सपने कब सच होते
तन्हाई में डर जाता क्यों हैं
चुप रह कर सब जुल्म सह रहे
अपनी बारी पर चिल्लाता क्यों हैं
ग़ज़ल ( दिल में दर्द जगाता क्यों हैं )
प्रस्तुति:
मदन मोहन सक्सेना