ग़ज़ल (बचपन यार अच्छा था)
जब हाथों हाथ लेते थे अपने भी पराये भी
बचपन यार अच्छा था हँसता मुस्कराता था
बारीकी जमाने की, समझने में उम्र गुज़री
भोले भाले चेहरे में सयानापन समाता था
मिलते हाथ हैं लेकिन दिल मिलते नहीं यारों
मिलाकर हाथ, पीछे से मुझको मार जाता था
सुना है आजकल कि बह नियमों को बनाता है
बचपन में गुरूजी से जो अक्सर मार खाता था
उधर माँ बाप तन्हा थे इधर बेटा अकेला था
पैसे की ललक देखो दिन कैसे दिखाता था
जिसे देखे हुआ अर्सा , उसका हाल जब पूछा
बाकी ठीक है कहकर वह ताना मार जाता था
मदन मोहन सक्सेना
"सुना है आजकल कि बह नियमों को बनाता है
जवाब देंहटाएंबचपन में गुरूजी से जो अक्सर मार खाता था"
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जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर गजल है...
जवाब देंहटाएंवैसे पचपन की उम्र मेँ बचपन बहुँत याद आता है।
मेरे ब्लॉग पर आकर अपने विचार व्यक्त करने के लिए बहुत धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंसुन्दर व सार्थक प्रस्तुति..
जवाब देंहटाएंशुभकामनाएँ।
मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।
वाह!
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