शुक्रवार, 28 अगस्त 2015
मंगलवार, 18 अगस्त 2015
ग़ज़ल(इश्क क्या है)
ग़ज़ल(इश्क क्या है)
हर सुबह रंगीन अपनी शाम हर मदहोश है
वक़्त की रंगीनियों का चल रहा है सिलसिला
चार पल की जिंदगी में ,मिल गयी सदियों की दौलत
जब मिल गयी नजरें हमारी ,दिल से दिल अपना मिला
नाज अपनी जिंदगी पर ,क्यों न हो हमको भला
कई मुद्द्दतों के बाद फिर अरमानों का पत्ता हिला
इश्क क्या है ,आज इसकी लग गयी हमको खबर
रफ्ता रफ्ता ढह गया, तन्हाई का अपना किला
वक़्त भी कुछ इस तरह से आज अपने साथ है
चाँद सूरज फूल में बस यार का चेहरा मिला
दर्द मिलने पर शिकायत ,क्यों भला करते मदन
जब दर्द को देखा तो दिल में मुस्कराते ही मिला
ग़ज़ल:
मदन मोहन सक्सेना
हर सुबह रंगीन अपनी शाम हर मदहोश है
वक़्त की रंगीनियों का चल रहा है सिलसिला
चार पल की जिंदगी में ,मिल गयी सदियों की दौलत
जब मिल गयी नजरें हमारी ,दिल से दिल अपना मिला
नाज अपनी जिंदगी पर ,क्यों न हो हमको भला
कई मुद्द्दतों के बाद फिर अरमानों का पत्ता हिला
इश्क क्या है ,आज इसकी लग गयी हमको खबर
रफ्ता रफ्ता ढह गया, तन्हाई का अपना किला
वक़्त भी कुछ इस तरह से आज अपने साथ है
चाँद सूरज फूल में बस यार का चेहरा मिला
दर्द मिलने पर शिकायत ,क्यों भला करते मदन
जब दर्द को देखा तो दिल में मुस्कराते ही मिला
ग़ज़ल:
मदन मोहन सक्सेना
गुरुवार, 30 जुलाई 2015
ग़ज़ल (ये रिश्तें)
ग़ज़ल (ये रिश्तें)
ये रिश्तें काँच से नाजुक जरा सी चोट पर टूटे
बिना रिश्तों के क्या जीवन ,रिश्तों को संभालों तुम
जिसे देखो बही मुँह पर ,क्यों मीठी बात करता है
सच्चा क्या खरा क्या है जरा इसको खँगालों तुम
हर कोई मिला करता बिछड़ने को ही जीबन में
जीबन के सफ़र में जो ,मिले अपना बना लो तुम
सियासत आज ऐसी है नहीं सुनती है जनता की
अपनी बात कैसे भी सियासत को बता लो तुम
अगर महफूज़ रहकर के बतन महफूज रखना है
मदन ,अपने नौनिहालों हो बिगड़ने से संभालों तुम
प्रस्तुति:
मदन मोहन सक्सेना
बुधवार, 22 जुलाई 2015
ग़ज़ल (हम इंतजार कर लेगें )
ग़ज़ल (हम इंतजार कर लेगें )
बोलेंगे जो भी हमसे बह ,हम ऐतवार कर लेगें
जो कुछ भी उनको प्यारा है ,हम उनसे प्यार कर लेगें
वह मेरे पास आयेंगे ये सुनकर के ही सपनो में
क़यामत से क़यामत तक हम इंतजार कर लेगें
मेरे जो भी सपने है और सपनों में जो सूरत है
उसे दिल में हम सज़ा करके नजरें चार कर लेगें
जीवन भर की सब खुशियाँ ,उनके बिन अधूरी है
अर्पण आज उनको हम जीबन हजार कर देगें
हमको प्यार है उनसे और करते प्यार बह हमको
गर अपना प्यार सच्चा है तो मंजिल पर कर लेगें
ग़ज़ल:
मदन मोहन सक्सेना
मंगलवार, 9 जून 2015
कुछ शेर
कुछ शेर
उसे हम दोस्त क्या मानें दिखे मुश्किल में मुश्किल से
मुसीबत में भी अपना हो उसी को दोस्त मानेगें
जो दिल को तोड़ ही डाले उसे हम प्यार क्या जानें
दिल से दिल मिलाये जो उसी को प्यार जानेंगें
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बाप बेटा माँ या बेटी स्वार्थ के रिश्ते सभी से
उम्र के अंतिम सफ़र में अपना नहीं कोई दोस्तों
स्वप्न थे सबके दिलों में अपना प्यार हो परिबार हो
स्वार्थ लिप्सा देखकर अब सपना नहीं कोई दोस्तों
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अपने और गैरों में फर्क करना नहीं यारों
मर्जी क्या खुदा की हो अपने कौन हो जाएँ
जिसे पाला जिसे पोषा अगर बन जायें बह कातिल
हंसी जीवन गुजरने के सपनें मौन हो जाएँ
मदन मोहन सक्सेना
गुरुवार, 28 मई 2015
ग़ज़ल(ये किसकी दुआ है )
ग़ज़ल(ये किसकी दुआ है )
मैं रोता भला था , हँसाया मुझे क्यों
शरारत है किसकी , ये किसकी दुआ है
मुझे यार नफ़रत से डर ना लगा है
प्यार की चोट से घायल दिल ये हुआ है
वक्त की मार सबको सिखाती सबक़ है
ज़िन्दगी चंद सांसों की लगती जुआँ है
भरोसे की बुनियाद कैसी ये जर्जर
जिधर देखिएगा धुँआ ही धुँआ है
मेहनत से बदली "मदन " देखो किस्मत
बुरे वक्त में ज़माना किसका हुआ है
मदन मोहन सक्सेना
सोमवार, 18 मई 2015
ग़ज़ल (बचपन यार अच्छा था)
ग़ज़ल (बचपन यार अच्छा था)
जब हाथों हाथ लेते थे अपने भी पराये भी
बचपन यार अच्छा था हँसता मुस्कराता था
बारीकी जमाने की, समझने में उम्र गुज़री
भोले भाले चेहरे में सयानापन समाता था
मिलते हाथ हैं लेकिन दिल मिलते नहीं यारों
मिलाकर हाथ, पीछे से मुझको मार जाता था
सुना है आजकल कि बह नियमों को बनाता है
बचपन में गुरूजी से जो अक्सर मार खाता था
उधर माँ बाप तन्हा थे इधर बेटा अकेला था
पैसे की ललक देखो दिन कैसे दिखाता था
जिसे देखे हुआ अर्सा , उसका हाल जब पूछा
बाकी ठीक है कहकर वह ताना मार जाता था
मदन मोहन सक्सेना
मंगलवार, 28 अप्रैल 2015
ग़ज़ल (अजब गजब सँसार )
रिश्तें नातें प्यार बफ़ा से
सबको अब इन्कार हुआ
बंगला ,गाड़ी ,बैंक तिजोरी
इनसे सबको प्यार हुआ
जिनकी ज़िम्मेदारी घर की
वह सात समुन्द्र पार हुआ
इक घर में दस दस घर देखें
अज़ब गज़ब सँसार हुआ
मिलने की है आशा जिससे
उस से सब को प्यार हुआ
ब्यस्त हुए तव बेटे बेटी
बूढ़ा जब वीमार हुआ
ग़ज़ल (अजब गजब सँसार )
मदन मोहन सक्सेना
बुधवार, 11 फ़रवरी 2015
ग़ज़ल ( दिल में दर्द जगाता क्यों हैं )
गर दबा नहीं है दर्द की तुझ पे
दिल में दर्द जगाता क्यों हैं
जो बीच सफर में साथ छोड़ दे
उन अपनों से मिलबाता क्यों हैं
क्यों भूखा नंगा ब्याकुल बचपन
पत्थर भर पेट खाता क्यों हैं
अपने ,सपने कब सच होते
तन्हाई में डर जाता क्यों हैं
चुप रह कर सब जुल्म सह रहे
अपनी बारी पर चिल्लाता क्यों हैं
ग़ज़ल ( दिल में दर्द जगाता क्यों हैं )
प्रस्तुति:
मदन मोहन सक्सेना
रविवार, 28 दिसंबर 2014
ग़ज़ल (पिज्जा बर्गर कोक भा गया नए ज़माने के लोगों को )
ग़ज़ल (पिज्जा बर्गर कोक भा गया नए ज़माने के लोगों को )
माता मम्मी अम्मा कहकर बच्चे प्यार जताते थे
मम्मी अब तो ममी हो गयीं प्यारे पापा डैड हो गए
पिज्जा बर्गर कोक भा गया नए ज़माने के लोगों को
दही जलेबी हलुआ पूड़ी सब के सब क्यों बैड हो गए
गौशाला में गाय नहीं है ,दिखती अब चौराहों में
घर घर कुत्ते राज कर रहें मालिक उनके मैड हो गए
कैसे कैसे गीत हुये अब शोरनुमा संगीत हुये अब
देख दशा और रंग ढंग क्यों तानसेन भी सैड हो गए
दादी बाबा मम्मी पापा चुप चुप घर में रहतें हैं
नए दौर में बच्चे ही अब घर के मानों हैड हो गए ।
प्रस्तुति :
मदन मोहन सक्सेना
नोट :प्रस्तुत ग़ज़ल में मैनें बिदेशी भाषा (अंग्रेजी ) के कुछ शब्दों का इस्तेमाल किया है. आजकल का समय जब कोई भी चीज शुद्ध मिलना नामुमकिन सा होता लग रहा है और फ्यूज़न के इस दौर में मेरा प्रयोग कहाँ तक सफल रहा . आप जरुर अबगत कराइएगा .
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