ग़ज़ल(देकर दुआएँ आज फिर हम पर सितम वो कर गए
हम आज तक खामोश हैं और वो भी कुछ कहते नहीं
दर्द के नग्मों में हक़ बस मेरा नजर आता है
देकर दुआएँ आज फिर हम पर सितम वो कर गए
अब क़यामत में उम्मीदों का सवेरा नजर आता है
क्यों रोशनी के खेल में अपना आस का पँछी जला
हमें अँधेरे में हिफाज़त का बसेरा नजर आता है
इस कदर अनजान हैं हम आज अपने हाल से
हकीकत में भी ख्वावों का घेरा नजर आता है
ये दीवानगी अपनी नहीं तो और फिर क्या है मदन
हर जगह इक शख्श का मुझे चेहरा नजर आता है
ग़ज़ल (देकर दुआएँ आज फिर हम पर सितम वो कर गए)
मदन मोहन सक्सेना
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (27-02-2016) को "नमस्कार का चमत्कार" (चर्चा अंक-2265) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुन्दर ग़ज़ल
जवाब देंहटाएंक्या बात है !.....बेहद खूबसूरत रचना....
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