प्रिय मित्रों मुझे बताते हुए बहुत ख़ुशी हो रही है कि मेरी ग़ज़ल जय विजय ,बर्ष -२ , अंक ९ ,जून २०१६ में प्रकाशित हुयी है . आप भी अपनी प्रतिक्रिया से अबगत कराएँ
सुबह हुयी और बोर हो गए
जीवन में अब सार नहीं है
रिश्तें अपना मूल्य खो रहे
अपनों में वो प्यार नहीं है
जो दादा के दादा ने देखा
अब बैसा संसार नहीं है
खुद ही झेली मुश्किल सबने
संकट में परिवार नहीं है
सब सिस्टम का रोना रोते
खुद बदलें ,तैयार नहीं है
मेहनत से किस्मत बनती है
मदन आदमी लाचार नहीं है
मदन मोहन सक्सेना
जवाब देंहटाएं"सब सिस्टम का रोना रोते
खुद बदलें, तैयार नहीं है"
यही तो .....
आपने काफी सुन्दर लिखा है...
जवाब देंहटाएंइसी विषय Freedom of expression से सम्बंधित मिथिलेश२०२०.कॉम पर लिखा गया लेख अवश्य देखिये!