नजरें मिला के नजरें फिराना ,ये हमने अब तक सीखा नहीं हैं
बादें भुलाकर कसमें मिटाकर ,वह कहतें है हमसे मुहब्बत यही हैं
बफाओं के बदले बफा न करना ,ये मेरी शुरू से आदत नहीं हैं
चाहत भुलाकर दिल को दुखाकर ,वह कहतें है हमसे मुहब्बत यही है
बफाओं के किस्से सुनाते थे हमको,बादें निभाएंगे कहते थे हमसे
मौके पे साथ भी छोड़ा उन्ही ने ,अब कहते है हमसे जरुरत नहीं है
दुनियाँ में मिलता है सब कुछ ,गम ही मिला है मुझे इस जहाँ से
कहने को दुनिया बाले कहें कुछ,मेरे लिए तो हकीकत यही है
खुश रहें बह सदा और फूले फलें ,गम का उन पर भी साया न हो
दिल से मेरे हरदम निकलते दुआ है,खुदा से मेरी इबादत यही है
ग़ज़ल(हकीकत)
मदन मोहन सक्सेना
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (12-03-2016) को "आवाजों को नजरअंदाज न करें" (चर्चा अंक-2279) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
sundar gazal :)
जवाब देंहटाएंBahut badhiya
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