बुधवार, 23 मार्च 2016

मेरी ग़ज़ल जय विजय ,बर्ष -२ , अंक ६ ,मार्च २०१६ में



प्रिय मित्रों मुझे बताते हुए बहुत ख़ुशी हो रही है कि मेरी ग़ज़ल जय विजय ,बर्ष -२ , अंक ६  ,
मार्च  २०१६  में प्रकाशित हुयी है . आप भी अपनी प्रतिक्रिया से अबगत कराएँ










ग़ज़ल (इस शहर  में )




इन्सानियत दम  तोड़ती है हर गली हर चौराहें पर
ईट गारे के सिबा इस शहर में रक्खा क्या है

इक नक़ली मुस्कान ही साबित है हर चेहरे पर
दोस्ती प्रेम ज़ज्बात की शहर में कीमत ही क्या है

मुकद्दर है सिकंदर तो सहारे बहुत हैं इस शहर में
शहर  में जो गिर चूका ,उसे बचाने में बचा ही क्या है

शहर  में हर तरफ भीड़ है बदहबासी है अजीब सी
घर में अब सिर्फ दीबारों के सिबा रक्खा क्या है

मौसम से बदलते है रिश्ते इस शहर में आजकल
इस शहर में अपने और गैरों में फर्क रक्खा क्या है


ग़ज़ल (इस शहर  में )

मदन मोहन सक्सेना

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