बुधवार, 2 नवंबर 2016

मेरे तीन शेर




एक
खुदा   का  नाम  लेने में तो मुझ से देर हो जाती
खुदा के नाम से पहले हम उनका नाम लेते हैं
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दो
पाया है सदा उनको खुदा के रूप में दिल में
उनकी बंदगी कर के खुदा को पूज लेते हैं
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तीन 
न मँदिर में न मस्जिद में न गिरजा में हम जाते हैं
जब नजरें चार उनसे हो ,खुदा के दर्श पाते   हैं



मेरे तीन शेर 
मदन मोहन सक्सेना




बुधवार, 26 अक्तूबर 2016

आज फिर मैंने तेरी याद के दीपक जला लिए


दीवाली का पर्व है फिर अँधेरे में क्यों रहूँ 
आज फिर मैंने तेरी याद के दीपक जला लिए। 




दीपोत्सब की अग्रिम शुभकामनायें

शुक्रवार, 21 अक्तूबर 2016

ग़ज़ल(चार पल की जिंदगी में चंद साँसों का सफर)




क्या गुल खिलाया आजकल वक़्त  की रफ़्तार ने
दर्द हमसे हमसफ़र बनकर के मिला करते हैं

इश्क का तो दर्द से रिश्ता ही कुछ ऐसा रहा
फूल भी खारों के बीच अक्सर खिला करतें हैं 

डर किसे कहतें हैं हमको उस समय मालूम चला
जब कभी भूले से हम खुद से मिला करतें हैं

अंदाज बदला दोस्ती का  इस तरह से आजकल
खामोश रहकर  आज वे हमसे मिला करते हैं 

चार पल की जिंदगी में चंद साँसों का सफर
"मदन " अपने भी पराये भी हमसे गिला करते हैं



ग़ज़ल(चार पल की जिंदगी में चंद साँसों का सफर)

मदन मोहन सक्सेना


सोमवार, 10 अक्तूबर 2016

ग़ज़ल ( कौन साथ ले जा पाया है रुपया पैसा महल अटारी)




कौन किसी का खाता  है अपनी किस्मत का सब खाते
मिलने पर सब होते खुश हैं ना मिलने पर गाल बजाते

कौन साथ ले जा पाया है रुपया पैसा महल अटारी
धरा ,धरा पर ही रह जाता इस दुनिया से जब हम जाते

इन्सां की अब बातें छोड़ों ,हमसे अच्छे भले परिंदे
मंदिर मस्जिद गुरूदारे में दाना देखा चुगने जाते

अगले पल का नहीं भरोसा जीबन में क्या हो जायेगा
खुद को ग़फ़लत में रखकर हम रुपया पैसा यार कमाते

अपना अपना राग लिए सब अपने अपने घेरे में
सबकी "मदन " यही कहानी दिन और रात गुजरते जाते

ग़ज़ल ( कौन साथ ले जा पाया है रुपया पैसा महल अटारी)
मदन मोहन सक्सेना





बुधवार, 5 अक्तूबर 2016

मेरी ग़ज़ल जय विजय ,बर्ष -३ अंक १ ,अक्टूबर २०१६ में प्रकाशित

प्रिय मित्रों मुझे बताते हुए बहुत ख़ुशी हो रही है कि मेरी ग़ज़ल जय विजय ,बर्ष -३  अंक १  ,अक्टूबर   २०१६ में प्रकाशित हुयी है . आप भी अपनी प्रतिक्रिया से अबगत कराएँ .





किस ज़माने की बात करते हो
रिश्तें निभाने की बात करते हो

अहसान ज़माने का है यार मुझ पर
क्यों राय भुलाने की बात करते हो

जिसे देखे हुए हो गया अर्सा मुझे
दिल में समाने की बात करते हो

तन्हा गुजरी है उम्र क्या कहिये
जज़्बात दबाने की बात करते हो

गर तेरा संग हो गया होता "मदन "
जिंदगानी लुटाने की बात करते हो


ग़ज़ल (किस ज़माने की बात करते हो)

मदन मोहन सक्सेना

शुक्रवार, 23 सितंबर 2016

ग़ज़ल ( मुहब्बत है इश्क़ है प्यार है या फिर कुछ और )



लोग कत्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होती है
हम नजरें भी मिलाते हैं तो चर्चा हो जाती है.

दिल पर क्या गुज़रती है जब  वह  दूर होते हैं
पाते पास उनको हैं  तो रौनक आ जाती  है .

आकर के ख्यालों में क्यों नीदें वे   चुराते हैं
रहते दूर जब हमसे तो हर पल याद आती है.

हमको प्यार है उनसे करते  प्यार वह  हमको
ये बात रहती दिल में है  ये कही नहीं जाती है.

चार पल की जिंदगी में चन्द साँसों का सफर
अपने आजमाते हैं कभी किस्मत आज़माती है .

मुहब्बत है इश्क़ है प्यार है या फिर कुछ और
इक  शख्श की सूरत "मदन " दिल को बस भाती है.

ग़ज़ल ( मुहब्बत है इश्क़ है प्यार है या फिर कुछ और )
मदन मोहन सक्सेना

सोमवार, 22 अगस्त 2016

ग़ज़ल( समय से कौन जीता है समय ने खेल खेले हैं)





ग़ज़ल( समय से कौन जीता है समय ने खेल खेले हैं)

अपनी जिंदगी गुजारी है ख्बाबों के ही सायें में 
ख्बाबों  में तो अरमानों के जाने कितने मेले हैं  

भुला पायेंगें कैसे हम ,जिनके प्यार के खातिर
सूरज चाँद की माफिक हम दुनिया में अकेले हैं  

महकता है जहाँ सारा मुहब्बत की बदौलत ही
मुहब्बत को निभाने में फिर क्यों सारे झमेले हैं  

ये उसकी बदनसीबी गर ,नहीं तो और फिर क्या है
जिसने पाया है बहुत थोड़ा ज्यादा गम ही झेले हैं  

मुश्किल यार ये कहना  किसका अब समय कैसा
समय से कौन जीता है समय ने खेल खेले हैं। 



मदन मोहन सक्सेना

गुरुवार, 11 अगस्त 2016

मेरी ग़ज़ल जय विजय ,बर्ष -२ , अंक ११ ,अगस्त २०१६ में प्रकाशित


प्रिय मित्रों मुझे बताते हुए बहुत ख़ुशी हो रही है कि मेरी ग़ज़ल जय विजय ,बर्ष -२ , अंक ११ ,अगस्त    २०१६ में प्रकाशित हुयी है . आप भी अपनी प्रतिक्रिया से अबगत कराएँ .





ग़ज़ल  (बचपन यार अच्छा था)

जब हाथों हाथ लेते थे अपने भी पराये भी
बचपन यार अच्छा था हँसता मुस्कराता था


बारीकी जमाने की, समझने में उम्र गुज़री
भोले भाले चेहरे में सयानापन समाता था


मिलते हाथ हैं लेकिन दिल मिलते नहीं यारों
मिलाकर हाथ, पीछे से मुझको मार जाता था


सुना है आजकल कि बह नियमों को बनाता है
बचपन में गुरूजी से जो अक्सर मार खाता था


उधर माँ बाप तन्हा थे इधर बेटा अकेला था
पैसे की ललक देखो दिन कैसे दिखाता था


जिसे देखे हुआ अर्सा , उसका हाल जब पूछा
बाकी ठीक है कहकर वह ताना मार जाता था






मेरी ग़ज़ल जय विजय ,बर्ष -२ , अंक ११ ,अगस्त    २०१६ में प्रकाशित


मदन मोहन सक्सेना

सोमवार, 8 अगस्त 2016

( ग़ज़ल ) हर पल याद रहती है निगाहों में बसी सूरत




सजा  क्या खूब मिलती है किसी   से   दिल  लगाने  की
तन्हाई  की  महफ़िल  में  आदत  हो  गयी   गाने  की  

हर  पल  याद  रहती  है  निगाहों  में  बसी  सूरत  
तमन्ना  अपनी  रहती  है  खुद  को  भूल  जाने  की  

उम्मीदों   का  काजल    जब  से  आँखों  में  लगाया  है
कोशिश    पूरी  होती है   पत्थर  से  प्यार  पाने  की  

अरमानो  के  मेले  में  जब  ख्बाबों   के  महल   टूटे  
बारी  तब  फिर  आती  है  अपनों  को  आजमाने  की 

मर्जे  इश्क  में   अक्सर हुआ करता है ऐसा भी 
जीने पर हुआ करती है ख्वाहिश  मौत पाने की

( ग़ज़ल )हर   पल  याद  रहती  है  निगाहों  में  बसी  सूरत 
मदन मोहन सक्सेना

बुधवार, 3 अगस्त 2016

ग़ज़ल (निगाहों में बसी सूरत फिर उनको क्यों तलाशे है )





कुछ इस तरह से हमने अपनी जिंदगी गुजारी है
जीने की तमन्ना है न मौत हमको प्यारी है

लाचारी का दामन आज हमने थाम रक्खा है
उनसे किस तरह कह दें की उनकी सूरत प्यारी है

निगाहों में बसी सूरत फिर उनको क्यों तलाशे है
ना जाने ऐसा क्यों होता और कैसी बेकरारी है

बादल बेरुखी के दिखने पर भी क्यों मुहब्बत में
हमको ऐसा क्यों लगता की उनसे अपनी यारी है

परायी लगती दुनिया में गम अपने ही लगते हैं
आई अब मुहब्बत में सजा पाने की बारी है

ये सांसे ,जिंदगी और दिल सब कुछ तो पराया है
ब्याकुल अब मदन ये है की होती क्यों उधारी है

ग़ज़ल (निगाहों में बसी सूरत फिर उनको क्यों तलाशे है )
मदन मोहन सक्सेना