रविवार, 4 नवंबर 2012

ग़ज़ल (इनायत)


ग़ज़ल (इनायत)


दुनिया  बालों की हम पर जब से इनायत हो गयी
उस रोज से अपनी जख्म खाने की आदत हो गयी

शोहरत  की बुलंदी में ,न खुद से हम हुए वाकिफ़ 
गुमनामी में अपनेपन की हिफाज़त हो गयी

मर्ज ऐ  इश्क को सबने ,गुनाह जाना ज़माने में 
अपनी नज़रों में मुहब्बत क्यों इबादत हो गयी

देकर दुआएं आज फिर हम पर सितम वह  कर गए.
अब जिंदगी जीना , अपने लिए क़यामत हो गयी


दुनिया  बालों की हम पर जब से इनायत हो गयी
उस रोज से अपनी जख्म खाने की आदत हो गयी

ग़ज़ल:
मदन मोहन सक्सेना

7 टिप्‍पणियां:

  1. मर्ज ऐ इश्क को सबने ,गुनाह जाना ज़माने में
    अपनी नज़रों में मुहब्बत क्यों इबादत हो गयी....
    खूब कहा....खूबसूरत !
    मुबारक कबूलें!

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    1. सुखद एहसास की अनुभूति हुई आपकी उपस्थिति मात्र से और आपकी प्रतिक्रिया से संबल मिला - हार्दिक धन्यवाद

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  2. मर्ज ऐ इश्क को सबने ,गुनाह जाना ज़माने में
    अपनी नज़रों में मुहब्बत क्यों इबादत हो गयी

    बहुत उम्दा बात कही अपने,सुंदर अभिव्यक्ति की रचना ।

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    1. श्रद्धेय वर ; नमन !…… आप की हार्दिकता सदैव कुछ न कुछ नया करने को प्रेरित करती है | प्रतिक्रियार्थ आभारी हूँ

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  3. बहुत उम्दा - मर्ज ऐ इश्क को सबने ,गुनाह जाना ज़माने में
    अपनी नज़रों में मुहब्बत क्यों इबादत हो गयी

    देकर दुआएं आज फिर हम पर सितम बो कर गए.
    अब जिंदगी जीना , अपने लिए क़यामत हो गयी

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  4. मर्ज ऐ इश्क को सबने ,गुनाह जाना ज़माने में
    अपनी नज़रों में मुहब्बत क्यों इबादत हो गयी

    really nice.

    दिवाली की शुभकामनाएं !!


    मेरी नयी पोस्ट पर आपका स्वागत है
    माँ नहीं है वो मेरी, पर माँ से कम नहीं है !!!

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