सोमवार, 22 अक्टूबर 2012

ग़ज़ल (इशारे जो किये होते )





ग़ज़ल (इशारे जो किये होते )


किसी   के  दिल  में चुपके  से  रह  लेना  तो  जायज  है
मगर  आने  से  पहले  कुछ  इशारे  भी  किये  होते  

नज़रों  से मिली नजरें तो नज़रों में बसी सूरत  
काश हमको उस खुदाई के नज़ारे  भी दिए होते 

अपना हमसफ़र जाना ,इबादत भी करी जिनकी 
चलतें दो कदम संग में ,सहारे भी दिए होते 

जीने का नजरिया फिर अपना कुछ अलग होता  
गर अपनी जिंदगी के गम ,सारे दे दिए होते 

दिल को भी जला लेते और ख्बाबों को जलाते  हम 
गर मुहब्बत में अँधेरे के इशारे जो किये होते 

ग़ज़ल:
मदन मोहन सक्सेना

शुक्रवार, 19 अक्टूबर 2012

ग़ज़ल(बर्ष सौ बेकार हैं )




ग़ज़ल(बर्ष सौ  बेकार हैं )

गर कोई हमसे कहे की रूप कैसा है खुदा का
हम यकीकन ये कहेंगे  जिस तरह से यार है

संग गुजरे कुछ लम्हों की हो नहीं सकती है कीमत
गर तनहा होकर जीए तो बर्ष सौ  बेकार हैं 

सोचते है जब कभी हम  क्या मिला क्या खो गया 
दिल जिगर सांसे है अपनी  पर न कुछ अधिकार है

याद कर सूरत सलोनी खुश हुआ करते हैं  हम 
प्यार से वह  दर्द देदे  तो हमें  स्वीकार है 

जिस जगह पर पग धरा है उस जगह  खुशबु मिली है 
नाम लेने से ही अपनी जिंदगी गुलजार है 

ये ख्बाहिश अपने दिल की है की कुछ नहीं अपना रहे 
क्या मदन इसको ही कहते, लोग अक्सर प्यार हैं



ग़ज़ल :
मदन मोहन सक्सेना

रविवार, 14 अक्टूबर 2012

ग़ज़ल (बात करते हैं )





ग़ज़ल (बात करते हैं )


सजाए  मोत का तोहफा  हमने पा लिया  जिनसे 
ना जाने क्यों वह अब हमसे कफ़न उधर दिलाने  की बात करते हैं 

हुए दुनिया से  बेगाने हम जिनके एक इशारे पर 
ना जाने क्यों वह  अब हमसे ज़माने की बात करते  हैं

दर्दे दिल मिला उनसे वह  हमको प्यारा ही लगता
जख्मो पर वह  हमसे अब मरहम लगाने की बात करते  हैं

हमेशा साथ चलने की दिलासा हमको दी जिसने
बीते कल को हमसे वह  अब चुराने की बात करते हैं

नजरे जब मिली उनसे तो चर्चा हो गयी अपनी 
न जाने क्यों वह अब हमसे प्यार छुपाने की बात करते  हैं



ग़ज़ल :
मदन मोहन सक्सेना

गुरुवार, 4 अक्टूबर 2012

ग़ज़ल (ख्बाब )



ग़ज़ल (ख्बाब )






ख्बाब था मेहनत के बल पर , हम बदल डालेंगे किस्मत
ख्बाब केवल ख्बाब बनकर, अब हमारे रह गए हैं


कामचोरी ,धूर्तता, चमचागिरी का अब चलन है
बेअरथ से लगने लगे है ,युग पुरुष जो कह गए हैं


दूसरों का किस तरह नुकसान हो सब सोचते है
त्याग ,करुना, प्रेम ,क्यों इस जहाँ से बह गए हैं


अब करा करता है शोषण ,आजकल बीरों का पौरुष
मानकर बिधि का विधान, जुल्म हम सब सह गए हैं


नाज हमको था कभी पर आज सर झुकता शर्म से
कल तलक जो थे सुरक्षित आज सरे ढह गए हैं 



ग़ज़ल :
मदन मोहन सक्सेना  

बुधवार, 26 सितंबर 2012

ग़ज़ल(शाम ऐ जिंदगी )

ग़ज़ल(शाम ऐ जिंदगी  )


आँख  से  अब  नहीं दिख रहा है जहाँ ,आज क्या हो रहा है मेरे संग यहाँ  
माँ का रोना नहीं अब मैं सुन पा रहा ,कान मेरे ये दोनों क्यों बहरें हुए

उम्र भर जिसको अपना मैं कहता रहा ,दूर जानो को बह मुझसे बहता रहा
आग होती है क्या आज मालूम चला,जल रहा हूँ मैं चुपचाप ठहरे हुए

शाम ज्यों धीरे धीरे सी ढलने लगी, छोंड तनहा मुझे भीड़ चलने लगी
अब तो तन है धुंआ और मन है धुंआ ,आज बदल धुएँ के क्यों गहरे हुए

ज्यों  जिस्म का पूरा जलना हुआ,उस समय खुद से फिर मेरा मिलना हुआ
एक मुद्दत हुयी मुझको कैदी बने,मैनें जाना नहीं कब से पहरें हुए




ग़ज़ल:
मदन मोहन सक्सेना