सोमवार, 8 अगस्त 2016

( ग़ज़ल ) हर पल याद रहती है निगाहों में बसी सूरत




सजा  क्या खूब मिलती है किसी   से   दिल  लगाने  की
तन्हाई  की  महफ़िल  में  आदत  हो  गयी   गाने  की  

हर  पल  याद  रहती  है  निगाहों  में  बसी  सूरत  
तमन्ना  अपनी  रहती  है  खुद  को  भूल  जाने  की  

उम्मीदों   का  काजल    जब  से  आँखों  में  लगाया  है
कोशिश    पूरी  होती है   पत्थर  से  प्यार  पाने  की  

अरमानो  के  मेले  में  जब  ख्बाबों   के  महल   टूटे  
बारी  तब  फिर  आती  है  अपनों  को  आजमाने  की 

मर्जे  इश्क  में   अक्सर हुआ करता है ऐसा भी 
जीने पर हुआ करती है ख्वाहिश  मौत पाने की

( ग़ज़ल )हर   पल  याद  रहती  है  निगाहों  में  बसी  सूरत 
मदन मोहन सक्सेना

बुधवार, 3 अगस्त 2016

ग़ज़ल (निगाहों में बसी सूरत फिर उनको क्यों तलाशे है )





कुछ इस तरह से हमने अपनी जिंदगी गुजारी है
जीने की तमन्ना है न मौत हमको प्यारी है

लाचारी का दामन आज हमने थाम रक्खा है
उनसे किस तरह कह दें की उनकी सूरत प्यारी है

निगाहों में बसी सूरत फिर उनको क्यों तलाशे है
ना जाने ऐसा क्यों होता और कैसी बेकरारी है

बादल बेरुखी के दिखने पर भी क्यों मुहब्बत में
हमको ऐसा क्यों लगता की उनसे अपनी यारी है

परायी लगती दुनिया में गम अपने ही लगते हैं
आई अब मुहब्बत में सजा पाने की बारी है

ये सांसे ,जिंदगी और दिल सब कुछ तो पराया है
ब्याकुल अब मदन ये है की होती क्यों उधारी है

ग़ज़ल (निगाहों में बसी सूरत फिर उनको क्यों तलाशे है )
मदन मोहन सक्सेना

शुक्रवार, 29 जुलाई 2016

मेरी पोस्ट , ग़ज़ल (दोस्ती आती नहीं है रास अब बहुत ज्यादा पास की)जागरण जंक्शन में प्रकाशित



प्रिय मित्रों मुझे बताते हुए बहुत ख़ुशी हो रही है कि मेरी पोस्ट ,
ग़ज़ल (दोस्ती आती नहीं है रास अब बहुत ज्यादा पास की)जागरण जंक्शन में प्रकाशित हुयी है , बहुत बहुत आभार जागरण जंक्शन टीम। आप भी अपनी प्रतिक्रिया से अबगत कराएँ .

 

 
 
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 ग़ज़ल (दोस्ती आती नहीं है रास अब बहुत ज्यादा पास की) 

नरक की अंतिम जमीं तक गिर चुके हैं आज जो
नापने को कह रहे , हमसे बह दूरियाँ आकाश की
 


इस कदर भटकें हैं युबा आज के इस दौर में
खोजने से मिलती नहीं अब गोलियां सल्फ़ास की
 

  
आज हम महफूज है क्यों दुश्मनों के बीच में
दोस्ती आती नहीं है रास अब बहुत ज्यादा पास की
 


बँट गयी सारी जमी ,फिर बँट गया ये आसमान
क्यों आज फिर हम बँट गए ज्यों गड्डियां हो तास की
 


हर जगह महफ़िल सजी पर दर्द भी मिल जायेगा
अब हर कोई कहने लगा है आरजू बनवास की
 


मौत के साये में जीती चार पल की जिंदगी
क्या मदन ये सारी दुनिया, है बिरोधाभास की

 
मेरी पोस्ट , ग़ज़ल (दोस्ती आती नहीं है रास अब बहुत ज्यादा पास की)जागरण जंक्शन में प्रकाशित


मदन मोहन सक्सेना

मेरी पोस्ट , ग़ज़ल (मौत के साये में जीती चार पल की जिन्दगी)जागरण जंक्शन में प्रकाशित

प्रिय मित्रों मुझे बताते हुए बहुत ख़ुशी हो रही है कि मेरी पोस्ट , 
ग़ज़ल (मौत के साये में जीती चार पल की जिन्दगी)जागरण जंक्शन में प्रकाशित हुयी है , बहुत बहुत आभार जागरण जंक्शन टीम। आप भी अपनी प्रतिक्रिया से अबगत कराएँ .

 
 
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ग़ज़ल (मौत के साये में जीती चार पल की जिन्दगी)
आगमन नए दौर का आप जिसको कह रहे
वो सेक्स की रंगीनियों की पैर में जंजीर है
सुन चुके हैं बहुत किस्से वीरता पुरुषार्थ के
हर रोज फिर किसी द्रौपदी का खिंच रहा क्यों चीर है
खून से खेली है होली आज के इस दौर में
कह रहे सब आज ये नहीं मिल रहा अब नीर है
मौत के साये में जीती चार पल की जिन्दगी
ये ब्यथा अपनी नहीं हर एक की ये पीर है
आज के हालत में किस किस से हम बचकर चले
प्रश्न लगता है सरल पर ये बहुत गंभीर है
चंद रुपयों की बदौलत बेचकर हर चीज को
आज सब आबाज देते कि बेचना जमीर है


मेरी पोस्ट , ग़ज़ल (मौत के साये में जीती चार पल की  जिन्दगी) जागरण जंक्शन में प्रकाशित


मदन मोहन सक्सेना

बुधवार, 20 जुलाई 2016

एक शेर बचपन पर



जब हाथों हाथ लेते थे अपने भी पराये भी
बचपन यार अच्छा था हँसता मुस्कराता था

मदन मोहन सक्सेना