शुक्रवार, 13 नवंबर 2015

ग़ज़ल(बहुत मुश्किल )





ग़ज़ल(बहुत मुश्किल )


अँधेरे में रहा करता है साया साथ अपने पर
बिना जोखिम उजाले में है रह पाना बहुत मुश्किल 

ख्बाबो और यादों की गली में उम्र गुजारी है
समय के साथ दुनिया में है रह पाना बहुत मुश्किल

कहने को तो कह लेते है अपनी बात सबसे हम
जुबां से दिल की बातो को है कह पाना बहुत मुश्किल 

ज़माने से मिली ठोकर तो अपना हौसला बढता
अपनों से मिली ठोकर तो सह पाना बहुत मुश्किल 

कुछ पाने की तमन्ना में हम खो देते बहुत कुछ है 
क्या खोया और क्या पाया  कह पाना बहुत मुश्किल


ग़ज़ल :
मदन मोहन सक्सेना 

मंगलवार, 3 नवंबर 2015

मेरी ग़ज़ल जय विजय ,बर्ष -२ , अंक २ ,नवम्बर २०१५ में


प्रिय मित्रों मुझे बताते हुए बहुत ख़ुशी हो रही है कि मेरी ग़ज़ल जय विजय ,बर्ष -२ , अंक २  ,नवम्बर  २०१५ में
प्रकाशित हुयी है . आप भी अपनी प्रतिक्रिया से अबगत कराएँ .

 


ग़ज़ल (दुआ)

हुआ इलाज भी मुश्किल ,नहीं मिलती दबा असली
दुआओं का असर होता दुआ से काम लेता हूँ

मुझे फुर्सत नहीं यारों कि माथा टेकुं दर दर पे
अगर कोई डगमगाता है उसे मैं थाम लेता हूँ

खुदा का नाम लेने में क्यों मुझसे देर हो जाती
खुदा का नाम से पहले ,मैं उनका नाम लेता हूँ

मुझे इच्छा नहीं यारों कि  मेरे पास दौलत हो
सुकून हो चैन हो दिल को इसी से काम लेता हूँ

सब कुछ तो बिका करता मजबूरी के आलम में
मैं सांसों के जनाज़े को सुबह से शाम लेता हूँ

सांसे है तो जीवन है तभी है मूल्य मेहनत का
जितना हो  जरुरी बस उसी का दाम लेता हूँ









ग़ज़ल :
मदन मोहन सक्सेना




सोमवार, 2 नवंबर 2015

दो शेर













दो शेर 



प्रथम :


अब सन्नाटे के घेरे में जरुरत भर ही आबाजें
घर में ,दिल की बात दिल में ही यारों अब दबातें हैं


 दूसरा : 

इन्सानियत दम  तोड़ती है हर गली हर चौराहें पर
ईट गारे के सिबा इस शहर में रक्खा क्या है










मदन मोहन सक्सेना

सोमवार, 26 अक्तूबर 2015

ग़ज़ल(खुदा जैसा ही वह होगा)








 
वक़्त  की साजिश समझ कर, सब्र करना सीखियें
दर्द से ग़मगीन वक़्त यूँ  ही गुजर जाता है 

जीने का नजरिया तो, मालूम है उसी को वस 
अपना गम भुलाकर जो हमेशा मुस्कराता है 

अरमानों के सागर में ,छिपे चाहत के मोती को 
बेगानों की दुनिया में ,कोई अकेला जान पाता है

शरीफों की शरारत का नजारा हमने देखा है
मिलाता जिनसे नजरें है ,उसी का दिल चुराता है

ना  जाने कितनी यादों  के तोहफे हमको दे डाले
खुदा जैसा ही वह  होगा ,जो दे के भूल जाता है

मर्ज ऐ इश्क में बाज़ी लगती हाथ उसके है 
दलीलों की कसौटी के ,जो जितने  पार जाता है    

ग़ज़ल(खुदा जैसा ही वह  होगा)

 
मदन मोहन सक्सेना
 

शुक्रवार, 23 अक्तूबर 2015

ग़ज़ल (दर्दे दिल)



ग़ज़ल (दर्दे दिल)

रंगत इश्क की क्या है ,ये वह  ही जान सकता है
दिल से दिल मिलाने की ,जुर्रत जो किया होगा

तन्हाई में जीना तो उसका मौत से बद्तर
किसी के साथ ख्बाबों में ,जो इक  पल भी जिया होगा 

दुनिया में न जाने क्यों ,पी -पी कर के जीते है    
बही समझेगा मय पीना, जो नज़रों  से पिया होगा

दर्दे दिल को दीवाने क्यों सीने से लगाते है
मुहब्बत में किसी ने ,शायद उसको दे दिया होगा..



ग़ज़ल:
मदन मोहन सक्सेना

मंगलवार, 13 अक्तूबर 2015

ग़ज़ल (अब समाचार ब्यापार हो गए )














किसकी बातें सच्ची जानें
अब समाचार ब्यापार हो गए

पैसा जब से हाथ से फिसला
दूर नाते रिश्ते दार हो गए

डिजिटल डिजिटल सुना है जबसे
अपने हाथ पैर बेकार हो गए

रुपया पैसा बैंक तिजोरी
आज जीने के आधार हो गए

प्रेम ,अहिंसा ,सत्य , अपरिग्रह
बापू क्यों लाचार हो गए

सीधा सच्चा मुश्किल में अब
कपटी रुतबेदार हो गए




ग़ज़ल (अब समाचार ब्यापार हो गए )
मदन मोहन सक्सेना

बुधवार, 30 सितंबर 2015

ग़ज़ल(आगमन नए दौर का)

 
ग़ज़ल(आगमन नए दौर का)


आगमन नए दौर का आप जिसको कह रहे
वो सेक्स की रंगीनियों की पैर में जंजीर है

सुन चुकेहैं  बहुत किस्से वीरता पुरुषार्थ के
हर रोज फिर किसी द्रौपदी का खिंच रहा क्यों चीर है

खून से खेली है होली आज के इस दौर में
कह रहे सब आज ये नहीं मिल रहा अब नीर है

मौत के साये में जीती चार पल की जिन्दगी
ये ब्यथा अपनी नहीं हर एक की ये पीर है

आज के हालत में किस किस से हम बचकर चले
प्रश्न  लगता है सरल पर ये बहुत गंभीर है

चंद  रुपयों की बदौलत बेचकर हर चीज को
आज हम आबाज देते की बेचना जमीर है 



ग़ज़ल :
मदन मोहन सक्सेना

मंगलवार, 22 सितंबर 2015

ग़ज़ल ( कैसे कैसे रँग)





ग़ज़ल ( कैसे कैसे रँग)

कभी अपनों से अनबन है कभी गैरों से अपनापन
दिखाए कैसे कैसे रँग मुझे अब आज जीबन है

ना रिश्तों की ही कीमत है ना नातें अहमियत रखतें
रिश्तें हैं उसी से आज जिससे मिल सके धन है

सियासत में नहीं  युबा , बुढ़ापा काम पाता है
समय ये आ गया कैसा दिल में आज उलझन है

सच्ची बात किसको आज सुनना अच्छी लगती है
सच्ची  बात सुनने को ब्याकुल अब हुआ मन है

जीबन के सफ़र में जो मुसीबत में भी अपना हो
मदन साँसें जिंदगी मेरी  उसको ही समर्पन है 



प्रस्तुति :
मदन मोहन सक्सेना



सोमवार, 31 अगस्त 2015

मेरी ग़ज़ल जय विजय ,बर्ष -१ , अंक १२ ,सितम्बर २०१५ में प्रकाशित


प्रिय मित्रों मुझे बताते हुए बहुत ख़ुशी हो रही है कि मेरी ग़ज़ल जय विजय ,बर्ष -१ , अंक १२      ,सितम्बर २०१५ में प्रकाशित हुयी है . आप भी अपनी प्रतिक्रिया से अबगत कराएँ .




 ग़ज़ल (इस शहर  में )




इन्सानियत दम  तोड़ती है हर गली हर चौराहें पर
ईट गारे के सिबा इस शहर में रक्खा क्या है

इक नक़ली मुस्कान ही साबित है हर चेहरे पर
दोस्ती प्रेम ज़ज्बात की शहर में कीमत ही क्या है

मुकद्दर है सिकंदर तो सहारे बहुत हैं इस शहर में
शहर  में जो गिर चूका ,उसे बचाने में बचा ही क्या है

शहर  में हर तरफ भीड़ है बदहबासी है अजीब सी
घर में अब सिर्फ दीबारों के सिबा रक्खा क्या है

मौसम से बदलते है रिश्ते इस शहर में आजकल
इस शहर में अपने और गैरों में फर्क रक्खा क्या है


ग़ज़ल (इस शहर  में )

मदन मोहन सक्सेना


मंगलवार, 18 अगस्त 2015

ग़ज़ल(इश्क क्या है)

ग़ज़ल(इश्क क्या है)




हर सुबह रंगीन अपनी शाम हर मदहोश है
वक़्त की रंगीनियों का चल रहा है सिलसिला


चार पल की जिंदगी में ,मिल गयी सदियों की दौलत
जब मिल गयी नजरें हमारी ,दिल से दिल अपना मिला


नाज अपनी जिंदगी पर ,क्यों न हो हमको भला
कई मुद्द्दतों के बाद फिर अरमानों का पत्ता हिला


इश्क क्या है ,आज इसकी लग गयी हमको खबर
रफ्ता रफ्ता ढह गया, तन्हाई का अपना किला


वक़्त भी कुछ इस तरह से आज अपने साथ है
चाँद सूरज फूल में बस यार का चेहरा मिला


दर्द मिलने पर शिकायत ,क्यों भला करते मदन
जब दर्द को देखा तो दिल में मुस्कराते ही मिला



ग़ज़ल:
मदन मोहन सक्सेना

गुरुवार, 30 जुलाई 2015

ग़ज़ल (ये रिश्तें)








ग़ज़ल (ये रिश्तें)

ये रिश्तें काँच से नाजुक जरा सी चोट पर टूटे
बिना रिश्तों के क्या जीवन ,रिश्तों को संभालों तुम

जिसे देखो बही मुँह पर ,क्यों मीठी बात करता है
सच्चा क्या खरा क्या है जरा इसको खँगालों तुम

हर कोई मिला करता बिछड़ने को ही जीबन में
जीबन के सफ़र में जो ,मिले अपना बना लो तुम

सियासत आज ऐसी है नहीं सुनती है जनता की
अपनी बात कैसे भी सियासत को बता लो तुम

अगर महफूज़ रहकर के बतन महफूज रखना है
मदन ,अपने नौनिहालों हो बिगड़ने से संभालों तुम


प्रस्तुति:
मदन मोहन सक्सेना

बुधवार, 22 जुलाई 2015

ग़ज़ल (हम इंतजार कर लेगें )



 ग़ज़ल (हम इंतजार कर लेगें )

बोलेंगे जो भी हमसे बह ,हम ऐतवार कर लेगें
जो कुछ भी उनको प्यारा है ,हम उनसे प्यार कर लेगें

वह  मेरे पास आयेंगे ये सुनकर के ही सपनो में
क़यामत से क़यामत तक हम इंतजार कर लेगें


मेरे जो भी सपने है और सपनों में जो सूरत है
उसे दिल में हम सज़ा करके नजरें चार कर लेगें

जीवन भर की सब खुशियाँ ,उनके बिन अधूरी है
अर्पण आज उनको हम जीबन हजार कर देगें

हमको प्यार है उनसे और करते प्यार बह हमको
गर अपना प्यार सच्चा है तो मंजिल पर कर लेगें

ग़ज़ल:
मदन मोहन सक्सेना

मंगलवार, 9 जून 2015

कुछ शेर




कुछ शेर


उसे हम दोस्त क्या मानें  दिखे मुश्किल में मुश्किल से
मुसीबत में भी अपना हो उसी को दोस्त मानेगें

जो दिल को तोड़ ही डाले उसे हम प्यार क्या जानें
दिल से दिल मिलाये जो उसी को प्यार जानेंगें



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बाप बेटा  माँ या बेटी  स्वार्थ के रिश्ते सभी से
उम्र के अंतिम सफ़र में अपना नहीं कोई दोस्तों

स्वप्न थे सबके दिलों में अपना प्यार हो परिबार हो
स्वार्थ लिप्सा देखकर अब सपना नहीं कोई दोस्तों


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अपने और गैरों में फर्क करना नहीं यारों
मर्जी क्या खुदा की हो अपने कौन हो जाएँ

जिसे पाला जिसे पोषा अगर बन जायें बह कातिल
हंसी जीवन गुजरने के  सपनें मौन हो जाएँ





मदन मोहन सक्सेना

गुरुवार, 28 मई 2015

ग़ज़ल(ये किसकी दुआ है )







ग़ज़ल(ये किसकी दुआ है )



मैं रोता भला था , हँसाया मुझे क्यों
शरारत है किसकी , ये किसकी दुआ है

मुझे यार नफ़रत से डर ना लगा है
प्यार की चोट से घायल दिल ये हुआ है

वक्त की मार सबको सिखाती सबक़ है
ज़िन्दगी चंद सांसों की लगती जुआँ है

भरोसे की बुनियाद कैसी ये जर्जर
जिधर देखिएगा  धुँआ ही धुँआ है

मेहनत से बदली "मदन " देखो किस्मत
बुरे वक्त में ज़माना किसका हुआ है

 




मदन मोहन सक्सेना




सोमवार, 18 मई 2015

ग़ज़ल (बचपन यार अच्छा था)




ग़ज़ल  (बचपन यार अच्छा था)


जब हाथों हाथ लेते थे अपने भी पराये भी
बचपन यार अच्छा था हँसता मुस्कराता था


बारीकी जमाने की, समझने में उम्र गुज़री
भोले भाले चेहरे में सयानापन समाता था


मिलते हाथ हैं लेकिन दिल मिलते नहीं यारों
मिलाकर हाथ, पीछे से मुझको मार जाता था


सुना है आजकल कि बह नियमों को बनाता है
बचपन में गुरूजी से जो अक्सर मार खाता था


उधर माँ बाप तन्हा थे इधर बेटा अकेला था
पैसे की ललक देखो दिन कैसे दिखाता था


जिसे देखे हुआ अर्सा , उसका हाल जब पूछा
बाकी ठीक है कहकर वह ताना मार जाता था


मदन मोहन सक्सेना

मंगलवार, 28 अप्रैल 2015

ग़ज़ल (अजब गजब सँसार )






रिश्तें नातें प्यार बफ़ा से 
सबको अब इन्कार  हुआ 

बंगला ,गाड़ी ,बैंक तिजोरी 
इनसे सबको प्यार हुआ 

जिनकी ज़िम्मेदारी घर की
वह सात समुन्द्र पार हुआ 

इक घर में दस दस घर देखें 
अज़ब गज़ब सँसार हुआ

मिलने की है आशा  जिससे
उस से  सब को प्यार हुआ 

ब्यस्त  हुए तव  बेटे बेटी
बूढ़ा   जब वीमार हुआ 


ग़ज़ल (अजब गजब सँसार )




मदन मोहन सक्सेना











बुधवार, 11 फ़रवरी 2015

ग़ज़ल ( दिल में दर्द जगाता क्यों हैं )





गर दबा नहीं है दर्द की तुझ पे 
दिल में दर्द जगाता क्यों हैं 

जो बीच सफर में साथ छोड़ दे 
उन अपनों से मिलबाता क्यों हैं 

क्यों भूखा नंगा ब्याकुल बचपन
पत्थर भर पेट खाता क्यों हैं 

अपने ,सपने कब सच होते 
तन्हाई में डर जाता क्यों हैं 

चुप रह कर सब जुल्म सह रहे 
अपनी बारी पर चिल्लाता क्यों हैं 



ग़ज़ल ( दिल में दर्द जगाता क्यों हैं )


प्रस्तुति:
मदन मोहन सक्सेना



 




रविवार, 28 दिसंबर 2014

ग़ज़ल (पिज्जा बर्गर कोक भा गया नए ज़माने के लोगों को )




ग़ज़ल (पिज्जा बर्गर कोक भा गया नए ज़माने के लोगों को )


माता मम्मी अम्मा कहकर बच्चे प्यार जताते थे
मम्मी अब तो ममी हो गयीं प्यारे पापा डैड हो गए

पिज्जा बर्गर कोक भा गया नए ज़माने के लोगों को
दही जलेबी हलुआ पूड़ी सब के सब क्यों  बैड हो गए

गौशाला में गाय नहीं है ,दिखती अब चौराहों में
घर घर कुत्ते राज कर रहें  मालिक उनके मैड हो गए

कैसे कैसे गीत  हुये अब शोरनुमा संगीत हुये अब
देख दशा और रंग ढंग क्यों तानसेन भी सैड हो गए

दादी बाबा मम्मी पापा चुप चुप घर में रहतें हैं
नए दौर में बच्चे ही अब घर के मानों हैड हो गए ।





प्रस्तुति :
मदन मोहन सक्सेना


नोट :प्रस्तुत ग़ज़ल में मैनें बिदेशी भाषा (अंग्रेजी ) के कुछ शब्दों का इस्तेमाल किया है. आजकल का समय जब कोई भी चीज शुद्ध मिलना नामुमकिन सा होता लग रहा है और फ्यूज़न के इस दौर में मेरा प्रयोग कहाँ तक सफल रहा . आप जरुर अबगत कराइएगा .


शुक्रवार, 28 नवंबर 2014

ग़ज़ल (सपनें खूब मचलते देखे)

 




सपनीली दुनियाँ मेँ यारों सपनें खूब मचलते देखे
रंग बदलती दूनियाँ देखी ,खुद को रंग बदलते देखा

सुबिधाभोगी को तो मैनें एक जगह पर जमते देख़ा
भूखों और गरीबोँ को तो दर दर मैनें चलते देखा

देखा हर मौसम में मैनें अपने बच्चों को कठिनाई में
मैनें टॉमी डॉगी शेरू को, खाते देखा पलते देखा

पैसों की ताकत के आगे गिरता हुआ जमीर मिला
कितना काम जरुरी हो पर उसको मैने टलते देखा

रिश्तें नातें प्यार की बातें ,इनको खूब सिसकते देखा
नए ज़माने के इस पल मेँ अपनों को भी छलते देखा

 



 
ग़ज़ल (सपनें खूब मचलते देखे)


मदन मोहन सक्सेना


सोमवार, 24 नवंबर 2014

ग़ज़ल ( मम्मी तुमको क्या मालूम )








सुबह सुबह अफ़रा तफ़री में फ़ास्ट फ़ूड दे देती माँ तुम 
टीचर क्या क्या देती ताने , मम्मी तुमको क्या मालूम 

क्या क्या रूप बना कर आती ,मम्मी तुम जब लेने आती
लोग कैसे किस्से लगे सुनाने , मम्मी तुमको क्या मालूम 

रोज पापा जाते पैसा पाने , मम्मी तुम घर लगी सजाने 
पूरी कोशिश से पढ़ते हम , मम्मी तुमको क्या मालूम 

घर मंदिर है ,मालूम तुमको पापा को भी मालूम है जब 
झगड़े में क्या बच्चे पाएं , मम्मी तुमको क्या मालूम 

क्यों इतना प्यार जताती हो , मुझको कमजोर बनाती हो 
दूनियाँ बहुत ही जालिम है , मम्मी तुमको क्या मालूम 


ग़ज़ल ( मम्मी तुमको क्या मालूम )




मदन मोहन सक्सेना








सोमवार, 9 दिसंबर 2013

ग़ज़ल (कहने का मतलब)





ग़ज़ल (कहने का मतलब)


कहने का मतलब होता था ,अब ये बात पुरानी  है
जैसा देखा बैसी बातें  .जग की अब ये रीत हो रही

 
साझा करने को ना मिलता , अपने गम में ग़मगीन हैं
स्वार्थ दिखा जिसमें भी यारों उससे केवल प्रीत हो रही


पाने को आतुर रहतें हैं  खोने को तैयार नहीं है
जिम्मेदारी ने
मुहँ मोड़ा ,सुबिधाओं की जीत हो रही

अब खेलों  में है  राजनीति और राजनीति ब्यापार हुई
मुश्किल अब है मालूम होना ,किस से किसकी मीत हो रही 


क्यों अनजानापन लगता है अब, खुद के आज बसेरे में
संग साथ की हार हुई और  तन्हाई की जीत हो रही


ग़ज़ल प्रस्तुति:
मदन मोहन सक्सेना

सोमवार, 4 नवंबर 2013

ग़ज़ल( मुहब्बत के फ़साने )




ग़ज़ल( मुहब्बत के फ़साने )

नजर फ़ेर ली है खफ़ा हो गया हूँ
बिछुड़ कर किसी से जुदा हो गया हूँ

मैं किससे करूँ बेबफाई का शिकबा 
कि खुद रूठकर बेबफ़ा हो गया हूँ 

बहुत उसने चाहा बहुत उसने पूजा 
मुहब्बत का मैं देवता हो गया हूँ 

बसायी थी जिसने दिलों में मुहब्बत
उसी के लिए क्यों बुरा हो गया हूँ 

मेरा नाम अब क्यों लब पर भी आये
मैं अपना नहीं अब दूसरा हो गया हूँ 

मदन सुनाऊँ किसे अब किस्सा ए गम
मुहब्बत में मिटकर फना हो गया हूँ . 



ग़ज़ल प्रस्तुति:

मदन मोहन सक्सेना

मंगलवार, 8 अक्तूबर 2013

ग़ज़ल (कुर्सी और वोट)









ग़ज़ल (कुर्सी और वोट)

कुर्सी और वोट की खातिर काट काट के सूबे बनते
नेताओं के जाने कैसे कैसे , अब ब्यबहार हुए
 

दिल्ली में कोई भूखा बैठा, कोई अनशन पर बैठ गया
भूख किसे कहतें हैं  नेता  उससे अब दो चार  हुए 


नेता क्या अभिनेता क्या अफसर हो या साधू जी
पग धरते ही जेल के अन्दर सब के सब बीमार हुए

कैसा दौर चला है यारों गंदी हो गयी राजनीती अब
अमन चैन से रहने बाले   दंगे से दो चार हुए

दादी को नहीं दबा मिली और मुन्ने का भी दूध खत्म
कर्फ्यू में मौका परस्त को लाखों के ब्यापार हुए

तिल  का ताड़ बना डाला क्यों आज सियासतदारों ने
आज बापू तेरे देश में, कैसे -कैसे अत्याचार हुए

हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई आपस में सब भाई भाई
ख्बाजा साईं के घर में , ये बातें  क्यों बेकार हुए

ग़ज़ल प्रस्तुति:
मदन मोहन सक्सेना

मंगलवार, 17 सितंबर 2013

ग़ज़ल (सेक्युलर कम्युनल)




ग़ज़ल (सेक्युलर कम्युनल)


जब से बेटे जबान हो गए 
मुश्किल में क्यों प्राण हो गए 

किस्से सुन सुन के संतों के 
भगवन भी हैरान हो गए 

आ धमके कुछ ख़ास बिदेशी 
घर बाले मेहमान हो गए 

सेक्युलर कम्युनल के चक्कर में 
गाँव गली शमसान हो गए 

कैसा दौर चला है अब ये 
सदन कुश्ती के मैदान हो गए 

बिन माँगें सब राय  दे दिए 
कितनों के अहसान हो गए




ग़ज़ल प्रस्तुति: मदन मोहन सक्सेना