रविवार, 4 नवंबर 2012

ग़ज़ल (इनायत)


ग़ज़ल (इनायत)


दुनिया  बालों की हम पर जब से इनायत हो गयी
उस रोज से अपनी जख्म खाने की आदत हो गयी

शोहरत  की बुलंदी में ,न खुद से हम हुए वाकिफ़ 
गुमनामी में अपनेपन की हिफाज़त हो गयी

मर्ज ऐ  इश्क को सबने ,गुनाह जाना ज़माने में 
अपनी नज़रों में मुहब्बत क्यों इबादत हो गयी

देकर दुआएं आज फिर हम पर सितम वह  कर गए.
अब जिंदगी जीना , अपने लिए क़यामत हो गयी


दुनिया  बालों की हम पर जब से इनायत हो गयी
उस रोज से अपनी जख्म खाने की आदत हो गयी

ग़ज़ल:
मदन मोहन सक्सेना

रविवार, 28 अक्तूबर 2012

ग़ज़ल(चेहरे की हक़ीक़त )



ग़ज़ल(चेहरे की हक़ीक़त )


चेहरे की हक़ीक़त  को समझ जाओ तो अच्छा है
तन्हाई के आलम में ये अक्सर बदल जाता है

मिली दौलत ,मिली शोहरत,मिला है मान उसको क्यों
मौका जानकर अपनी जो बात बदल जाता है

क्या बताये आपको हम अपने  दिल की दास्ताँ
किसी पत्थर की मूरत पर ये अक्सर मचल जाता है

किसी का दर्द पाने की तमन्ना जब कभी उपजे
जीने का नजरिया फिर उसका बदल जाता है

ग़ज़ल:
मदन मोहन सक्सेना

सोमवार, 22 अक्तूबर 2012

ग़ज़ल (इशारे जो किये होते )





ग़ज़ल (इशारे जो किये होते )


किसी   के  दिल  में चुपके  से  रह  लेना  तो  जायज  है
मगर  आने  से  पहले  कुछ  इशारे  भी  किये  होते  

नज़रों  से मिली नजरें तो नज़रों में बसी सूरत  
काश हमको उस खुदाई के नज़ारे  भी दिए होते 

अपना हमसफ़र जाना ,इबादत भी करी जिनकी 
चलतें दो कदम संग में ,सहारे भी दिए होते 

जीने का नजरिया फिर अपना कुछ अलग होता  
गर अपनी जिंदगी के गम ,सारे दे दिए होते 

दिल को भी जला लेते और ख्बाबों को जलाते  हम 
गर मुहब्बत में अँधेरे के इशारे जो किये होते 

ग़ज़ल:
मदन मोहन सक्सेना

शुक्रवार, 19 अक्तूबर 2012

ग़ज़ल(बर्ष सौ बेकार हैं )




ग़ज़ल(बर्ष सौ  बेकार हैं )

गर कोई हमसे कहे की रूप कैसा है खुदा का
हम यकीकन ये कहेंगे  जिस तरह से यार है

संग गुजरे कुछ लम्हों की हो नहीं सकती है कीमत
गर तनहा होकर जीए तो बर्ष सौ  बेकार हैं 

सोचते है जब कभी हम  क्या मिला क्या खो गया 
दिल जिगर सांसे है अपनी  पर न कुछ अधिकार है

याद कर सूरत सलोनी खुश हुआ करते हैं  हम 
प्यार से वह  दर्द देदे  तो हमें  स्वीकार है 

जिस जगह पर पग धरा है उस जगह  खुशबु मिली है 
नाम लेने से ही अपनी जिंदगी गुलजार है 

ये ख्बाहिश अपने दिल की है की कुछ नहीं अपना रहे 
क्या मदन इसको ही कहते, लोग अक्सर प्यार हैं



ग़ज़ल :
मदन मोहन सक्सेना

रविवार, 14 अक्तूबर 2012

ग़ज़ल (बात करते हैं )





ग़ज़ल (बात करते हैं )


सजाए  मोत का तोहफा  हमने पा लिया  जिनसे 
ना जाने क्यों वह अब हमसे कफ़न उधर दिलाने  की बात करते हैं 

हुए दुनिया से  बेगाने हम जिनके एक इशारे पर 
ना जाने क्यों वह  अब हमसे ज़माने की बात करते  हैं

दर्दे दिल मिला उनसे वह  हमको प्यारा ही लगता
जख्मो पर वह  हमसे अब मरहम लगाने की बात करते  हैं

हमेशा साथ चलने की दिलासा हमको दी जिसने
बीते कल को हमसे वह  अब चुराने की बात करते हैं

नजरे जब मिली उनसे तो चर्चा हो गयी अपनी 
न जाने क्यों वह अब हमसे प्यार छुपाने की बात करते  हैं



ग़ज़ल :
मदन मोहन सक्सेना

गुरुवार, 4 अक्तूबर 2012

ग़ज़ल (ख्बाब )



ग़ज़ल (ख्बाब )






ख्बाब था मेहनत के बल पर , हम बदल डालेंगे किस्मत
ख्बाब केवल ख्बाब बनकर, अब हमारे रह गए हैं


कामचोरी ,धूर्तता, चमचागिरी का अब चलन है
बेअरथ से लगने लगे है ,युग पुरुष जो कह गए हैं


दूसरों का किस तरह नुकसान हो सब सोचते है
त्याग ,करुना, प्रेम ,क्यों इस जहाँ से बह गए हैं


अब करा करता है शोषण ,आजकल बीरों का पौरुष
मानकर बिधि का विधान, जुल्म हम सब सह गए हैं


नाज हमको था कभी पर आज सर झुकता शर्म से
कल तलक जो थे सुरक्षित आज सरे ढह गए हैं 



ग़ज़ल :
मदन मोहन सक्सेना  

बुधवार, 26 सितंबर 2012

ग़ज़ल(शाम ऐ जिंदगी )

ग़ज़ल(शाम ऐ जिंदगी  )


आँख  से  अब  नहीं दिख रहा है जहाँ ,आज क्या हो रहा है मेरे संग यहाँ  
माँ का रोना नहीं अब मैं सुन पा रहा ,कान मेरे ये दोनों क्यों बहरें हुए

उम्र भर जिसको अपना मैं कहता रहा ,दूर जानो को बह मुझसे बहता रहा
आग होती है क्या आज मालूम चला,जल रहा हूँ मैं चुपचाप ठहरे हुए

शाम ज्यों धीरे धीरे सी ढलने लगी, छोंड तनहा मुझे भीड़ चलने लगी
अब तो तन है धुंआ और मन है धुंआ ,आज बदल धुएँ के क्यों गहरे हुए

ज्यों  जिस्म का पूरा जलना हुआ,उस समय खुद से फिर मेरा मिलना हुआ
एक मुद्दत हुयी मुझको कैदी बने,मैनें जाना नहीं कब से पहरें हुए




ग़ज़ल:
मदन मोहन सक्सेना

सोमवार, 17 सितंबर 2012

ग़ज़ल(इक जैसी कहानी)




ग़ज़ल(इक जैसी कहानी)

हर  लम्हा तन्हाई का एहसास मुझकों होता है
जबकि दोस्तों के बीच अपनी गुज़री जिंदगानी है

क्यों अपने जिस्म में केवल ,रंगत  खून की दिखती
औरों का लहू बहता ,तो सबके लिए पानी है

खुद को भूल जाने की ग़लती सबने कर दी है
हर इन्सान की दुनिया में इक जैसी कहानी है

दौलत के नशे में जो अब दिन को रात कहतें है
हर गल्तीं की  कीमत भी, यहीं उनको चुकानी है

वक़्त की रफ़्तार का कुछ भी भरोसा  है नहीं
किसको जीत मिल जाये, किसको हार  पानी है

सल्तनत ख्बाबो की मिल जाये तो अपने लिए बेहतर है
दौलत आज है  तो क्या ,आखिर कल तो जानी है


ग़ज़ल:
मदन मोहन सक्सेना

गुरुवार, 13 सितंबर 2012

ग़ज़ल (कैसी बेकरारी है)

 ग़ज़ल (कैसी बेकरारी है)


कुछ इस  तरह से हमने अपनी जिंदगी गुजारी है
न जीने की तमन्ना है न मौत हमको प्यारी है

लाचारी का दामन आज हमने थाम रक्खा  है 
उनसे किस तरह कह दे की उनकी सूरत प्यारी है

निगाहों में बसी सूरत फिर उनको क्यों तलाशे है
ना जाने ऐसा क्यों होता और कैसी बेकरारी है

बादल बेरुखी के दिखने पर भी क्यों मुहब्बत में 
हमको ऐसा क्यों लगता की उनसे अपनी यारी है

परायी लगती दुनिया में गम अपने ही लगते है
आई अब मुहब्बत में सजा पाने की बारी है

ये सांसे ,जिंदगी और दिल सब कुछ   तो पराया है
ब्याकुल अब  मदन ये है की होती क्यों  उधारी  है  



ग़ज़ल :
मदन मोहन सक्सेना

सोमवार, 3 सितंबर 2012

ग़ज़ल(यार का चेहरा मिला)


ग़ज़ल(यार का चेहरा मिला)


हर सुबह  रंगीन   अपनी  शाम  हर  मदहोश है
वक़्त की रंगीनियों का चल रहा है सिलसिला

चार पल की जिंदगी में ,मिल गयी सदियों की दौलत
मिल गयी नजरें हमारी ,दिल से दिल अपना मिला

नाज अपनी जिंदगी पर क्यों न हो हमको भला
कई मुद्द्दतों के बाद फिर  अरमानों  का पत्ता हिला

इश्क क्या है ,आज इसकी लग गयी हमको खबर
रफ्ता रफ्ता ढह गया, तन्हाई का अपना किला

वक़्त भी कुछ इस तरह से आज अपने साथ है
चाँद सूरज फूल में बस यार का चेहरा मिला

दर्द मिलने पर शिकायत ,क्यों भला करते मदन
जब  दर्द को देखा तो  दिल में मुस्कराते ही मिला

ग़ज़ल:
मदन मोहन सक्सेना

बुधवार, 29 अगस्त 2012

ग़ज़ल ( प्यार से प्यार )

 


ग़ज़ल ( प्यार से प्यार )



जानकर अपना तुम्हे हम हो गए अनजान  खुद से
दर्द है क्यों  अब तलक अपना हमें  माना  नहीं  नहीं है

अब सुबह से शाम तक बस नाम तेरा है लबों  पर
साथ हो अपना तुम्हारा और कुछ पाना नहीं है

गर कहोगी रात को दिन ,दिन लिखा  बोला करेंगे
गीत जो तुमको न भाए वह  हमें गाना नहीं है

गर खुदा भी रूठ जाये तो हमें मंजूर होगा
पास वह  अपने बुलाये तो हमें जाना नहीं है

प्यार में गर मौत दे दें तो हमें शिकबा नहीं है
प्यार में वह प्यार  से कुछ भी कहें  ताना नहीं  है

ग़ज़ल :
मदन मोहन सक्सेना 

मंगलवार, 7 अगस्त 2012

ग़ज़ल (आज के हालात )





ग़ज़ल (आज के हालात )

आज के हालत में किस किस से हम शिकवा करें 
हो रही अपनों से क्यों आज यारों  जंग है 

खून भी पानी की माफिक बिक रहा बाजार में
नाम से पहचान होती किस्में किसका रंग है 


सत्य की सुंदर गली में मन नहीं लगता है अब
जा नहीं सकते है उसमें ये तो काफी तंग है


देखकर दुश्मन  भी कहते क्या करे हम आपका
एक तो पहले से घायल गल चुके सब अंग है


बँट  गए है आज हम इस तरह से देखिये
हर तरफ आबाज आती क्या अजीव संग है

जुल्म की हर दास्ताँ को, खामोश होकर सह चुके
ब्यक्त करने का मदन ये क्या अजीव ढंग  है


ग़ज़ल :
मदन मोहन सक्सेना 

गुरुवार, 2 अगस्त 2012

ग़ज़ल (आरजू बनवास की)




ग़ज़ल (आरजू बनवास की)

नरक की अंतिम जमीं तक गिर चुके हैं  आज जो
नापने को कह रहे , हमसे बह  दूरियाँ  आकाश की

इस कदर अनजान हैं  ,हम आज अपने हाल से
खोजने से मिलती नहीं अब गोलिया सल्फास की 

आज हम महफूज है क्यों दुश्मनों के बीच में
दोस्ती आती नहीं है रास अब बहुत ज्यादा पास की

बँट  गयी सारी जमी ,फिर बँट गया ये आसमान
क्यों आज फिर हम बँट गए ज्यों गद्दिया हो तास की

हर जगह महफ़िल सजी पर दर्द भी मिल जायेगा
हर कोई कहने लगा अब आरजू बनवास की

मौत के साये में जीती चार पल की जिंदगी
क्या मदन ये सारी  दुनिया,  है बिरोधाभास की



ग़ज़ल :
मदन मोहन सक्सेना 

सोमवार, 30 जुलाई 2012

ग़ज़ल (अश्क बहके आए हैं )



ग़ज़ल (
अश्क बहके आए हैं )

जाना जिनको कल अपना आज हुए वह  परायेहैं 
दुनियाँ  के सारे गम आज मेरे  पास आए हैं 

ना  पीने का है आज मौसम ,न काली  सी घटाए हैं 
आज फिर से नैनो में क्यों अश्क बहके आए हैं 

रोशनी से आशियाना यारों अक्सर जलता है
अँधेरा मेरे मन को आज खूब ज्यादा भाए है

जब जब देखा मैंने दिल को ,ये मुस्कराके कहता है
और जगह बाक़ी है, जख्म  कम ही पाए हैं 

अब तो  अपनी किस्मत पर रोना भी नहीं आता
दर्दे दिल को पास रखकर हम हमेशा मुस्कराए हैं 




ग़ज़ल :
मदन मोहन सक्सेना 




गुरुवार, 19 जुलाई 2012

ग़ज़ल (नए दौर का आगमन )


ग़ज़ल (नए दौर का आगमन )


आगमन नए दौर का आप जिसको कह रहे
वह सेक्स की रंगीनियों की पैर में जंजीर है

सुन चुके हैं बहुत किस्से वीरता पुरुषार्थ के
हर रोज फिर किसी द्रौपदी का खिंच रहा क्यों चीर है

खून से खेली है होली आज के इस दौर में
कह रहे सब आज ये नहीं मिल रहा अब नीर है

मौत के साये में जीती चार पल की जिन्दगी
ये ब्यथा अपनी नहीं हर एक की ये पीर है

आज के हालत में किस किस से हम बचकर चले
प्रश्न  लगता है सरल पर ये बहुत गंभीर है

चंद  रुपयों की बदौलत बेचकर हर चीज को
आज हम आबाज देते कि  बेचना जमीर है 


ग़ज़ल :
मदन मोहन सक्सेना

सोमवार, 9 जुलाई 2012

ग़ज़ल (वक्त की रफ़्तार )


ग़ज़ल (वक्त    की रफ़्तार )

वक्त    की रफ़्तार  का कुछ भी भरोसा है नहीं
कल तलक था जो सुहाना कल बही विकराल हो

इस तरह से आज पग में फूल से कांटे चुभे है
चांदनी से खौफ लगता ज्यों  कालिमा का जाल हो

ये किसी की बदनसीबी गर नहीं तो और क्या है
याद आने पर किसी की हाल जब बदहाल हो

पास रहकर दूर हैं   और  दूर रहकर पास हैं 
ये गुजारिश है खुदा से  अब मिलन  तत्काल हो

चंद  लम्हों  की धरोहर आज जिनके  पास है
ब्यर्थ  से लगते मदन अब मास  हो या साल हो

ग़ज़ल :
मदन मोहन सक्सेना 

रविवार, 8 जुलाई 2012

ग़ज़ल (ज़ालिम दुनियाँ )



 ग़ज़ल (ज़ालिम दुनियाँ )


ज़ालिम लगी दुनिया हमें हर शख्श  बेगाना लगा
हर पल हमें धोखे मिले अपने ही ऐतबार से

नफरत से की गयी चोट से हर जख्म हमने सह लिया
घायल हुए उस रोज हम जिस रोज मारा प्यार से

प्यार के अहसास से जब जब रहे हम बेख़बर 
तब तब लगा हमको की हम जी रहे बेकार से

इजहार राज ए  दिल का वह जिस रोज मिल करने लगे
उस रोज से हम पा रहे खुशबु भी देखो खार से

जब प्यार से इनकार हो तो इकरार से है वो भला
मजा पाने लगा है अब ये मदन इकरार का इंकार से

क्या कहूँ कि आज कल का ये समय कैसा तो है
आदमी  ब्यापार से तो  प्यार करता ,दूर रहता प्यार से



ग़ज़ल :
मदन मोहन सक्सेना 

गुरुवार, 21 जून 2012

ग़ज़ल (अपनी अपनी किस्मत)



ग़ज़ल (अपनी अपनी किस्मत)


गजब दुनिया बनाई है गजब हैं  लोग दुनिया के
मुलायम मलमली बिस्तर में अक्सर वो  नहीं सोते 

यहाँ  हर रोज सपने  क्यों, दम अपना  तोड़ देते हैं 
नहीं है पास में बिस्तर ,वो  नींदें चैन की सोते 

किसी के पास फुर्सत है  फुर्सत ही रहा करती 
इच्छा है कुछ करने की  पर मौके ही नहीं होते 

जिसे मौका दिया हमने   कुछ न कुछ करेगा वो 
किया कुछ भी नहीं उसने   सपने रोज वो बोते 

नहीं है कोई भी रोता ,  किसी और  के लिए
सब अपनी अपनी किस्मत को लेकर खूब रोते

ग़ज़ल :
मदन मोहन सक्सेना

गुरुवार, 7 जून 2012

ग़ज़ल (आजकल का ये समय)



ग़ज़ल (आजकल का ये समय)

सेक्स की रंगीनियों के आज के इस दौर में
स्वार्थ की तालीम अब मिलने लगी स्कूल से 

आगमन नए दौर का आप जिस को कह रहे

आजकल का ये समय भटका हुआ है मूल से 

दर्द का तोहफा  मिला हमको दोस्ती के नाम पर

दोस्तों के बीच में हम जी रहे थे भूल से

प्यार की हर बात से महरूम हो गए आज हम

दर्द की खुशबु भी देखो आ रही है फूल   से

बँट  गयी सारी जमी फिर बँट गया ये आसमान
अब खुदा बँटने लगा है इस तरह की तूल से

चार पल की जिंदगी में चन्द साँसोँ का सफ़र
मिलना तो आखिर है मदन इस धरा की धूल से





ग़ज़ल :
मदन मोहन सक्सेना 

सोमवार, 4 जून 2012

ग़ज़ल (मुश्किल)


ग़ज़ल (मुश्किल)


दुनियाँ  में जिधर देखो हजारो रास्ते  दीखते
मंजिल जिनसे मिल जाए बो रास्ते नहीं मिलते

किस को गैर कहदे हम और किसको  मान  ले अपना
मिलते हाथ सबसे है दिल से दिल नहीं मिलते

करी थी प्यार की बाते कभी हमने भी फूलो से
शिकायत सबको उनसे है क़ी उनके लब नहीं हिलते

ज़माने की हकीकत को समझ  जाओ तो अच्छा है
ख्बाबो  में भी टूटे दिल सीने पर नहीं सिलते

कहने को तो ख्बाबो में हम उनके साथ रहते है
मुश्किल अपनी ये की हकीक़त में नहीं मिलते




ग़ज़ल :
मदन मोहन सक्सेना 

रविवार, 3 जून 2012

ग़ज़ल (चोट)

ग़ज़ल (चोट)


जालिम लगी दुनिया हमें हर शख्श  बेगाना लगा
हर पल हमें धोखे मिले अपने ही ऐतबार से

नफरत से की गयी चोट से हर जख्म हमने सह लिया
घायल हुए उस रोज हम जिस रोज मारा प्यार से

प्यार के एहसास   से जब जब रहे हम बेखबर
तब तब लगा हमको की हम जी रहे बेकार से

इजहार राजे दिल का बो जिस रोज मिल करने लगे
उस रोज से हम पा रहे खुशबु भी देखो खार से

जब प्यार से इंकार हो तो इकरार से है बो भला
मजा पाने लगा है अब ये मदन इकरार का इंकार से


ग़ज़ल :
मदन मोहन सक्सेना

सोमवार, 28 मई 2012

ग़ज़ल(ख्वाहिश)


ग़ज़ल(ख्वाहिश)

गर कोई हमसे कहे की रूप कैसा है खुदा का
हम यकीकन ये कहेंगे  जिस तरह से यार है

संग गुजरे कुछ लम्हों की हो नहीं सकती है कीमत
गर तनहा होकर जीए तो बर्ष सो बेकार है

सोचते है जब कभी हम  क्या मिला क्या खो गया 
दिल जिगर सांसे है अपनी  पर न कुछ अधिकार है

याद कर सूरत सलोनी खुश हुआ करते है हम
प्यार से बो दर्द देदे  तो हमें स्वीकार है 

जिस जगह पर पग धरा है उस जगह  खुशबु मिली है 
नाम लेने से ही अपनी जिंदगी गुलजार है 

ये ख्वाहिश  अपने दिल की है की कुछ नहीं अपना रहे 
क्या मदन इसको ही कहते लोग अक्सर प्यार है


ग़ज़ल :
मदन मोहन सक्सेना 

गुरुवार, 24 मई 2012

ग़ज़ल ( दिलासा )




ग़ज़ल ( दिलासा )
सजाए  मोत का तोहफा  हमने पा लिया  जिनसे 
ना जाने क्यों बो अब हमसे कफ़न उधर दिलाने  की बात करते हैं 

हुए दुनिया से  बेगाने हम जिनके एक इशारे पर 
ना जाने क्यों बो अब हमसे ज़माने की बात करते हैं 

दर्दे दिल मिला उनसे बो हमको प्यारा ही लगता
जख्मो पर बो हमसे अब मरहम लगाने की बात करते हैं 

हमेशा साथ चलने की दिलासा हमको दी जिसने
बीते कल को हमसे बो अब चुराने की बात करतेहैं 

नजरे जब मिली उनसे तो चर्चा हो गयी अपनी 
ना  जाने क्यों बो अब हमसे प्यार छुपाने की बात करतेहैं 




ग़ज़ल :
मदन मोहन सक्सेना

मंगलवार, 22 मई 2012

ग़ज़ल (खुदगर्जी)


ग़ज़ल (खुदगर्जी)




क्या सच्चा है क्या है झूठा अंतर करना नामुमकिन है
हमने खुद को पाया है बस खुदगर्जी के घेरे में

एक ज़मीं  वख्शी   थी कुदरत ने हमको यारो लेकिन
हमने सब कुछ बाट दिया मेरे में और तेरे में 

आज नजर आती मायूसी मानबता के चेहरे पर  
अपराधी को शरण मिली है आज पुलिस के डेरे में

बीरो की क़ुरबानी का कुछ भी असर नहीं दीखता है
जिसे देखिये चला रहा है सारे तीर अँधेरे में

जीवन बदला भाषा बदली सब कुछ अपना बदल गया है
अनजानापन लगता है अब खुद के आज बसेरे में
 
ग़ज़ल :
मदन मोहन सक्सेना

रविवार, 22 अप्रैल 2012

ग़ज़ल (चार पल की जिन्दगी)


ग़ज़ल (चार पल की जिन्दगी)

कभी गर्दिशों से दोस्ती कभी गम से याराना हुआ
चार पल की जिन्दगी का ऐसे कट जाना हुआ


इस आस में बीती उम्र कोई हमे अपना कहे
अब आज के इस दौर में ये दिल भी बेगाना हुआ

जिस  रोज से देखा उन्हें मिलने लगी मेरी नजर
आँखों से मय पीने लगे मानो की मयखाना हुआ

इस कदर अन्जान हैं  हम आज अपने हाल से
हमसे बोला आइना ये शख्श  बेगाना हुआ



ढल नहीं जाते है लब्ज यू हीँ   रचना में  कभी
कभी गीत उनसे मिल गया ,कभी ग़ज़ल का पाना हुआ..

 

 ग़ज़ल:
मदन मोहन सक्सेना

सोमवार, 12 मार्च 2012

ग़ज़ल ( अपनी जिंदगी)



ग़ज़ल ( अपनी जिंदगी)

अपनी जिंदगी गुजारी है ख्बाबों के ही सायें में
 ख्बाबों  में तो अरमानों के जाने कितने मेले हैं  

भुला पायेंगें कैसे हम ,जिनके प्यार के खातिर
सूरज चाँद की माफिक हम दुनिया में अकेले हैं  

महकता है जहाँ सारा मुहब्बत की बदौलत ही
मुहब्बत को निभाने में फिर क्यों सारे झमेले हैं  

ये उसकी बदनसीबी गर ,नहीं तो और फिर क्या है
जिसने पाया है बहुत थोड़ा ज्यादा गम ही झेले हैं  

ग़ज़ल :
मदन मोहन सक्सेना