ग़ज़ल(दीवारें ही दीवारें)
दीवारें ही दीवारें नहीं दीखते अब घर यारों
बड़े शहरों के हालात कैसे आज बदले है.
उलझन आज दिल में है ,कैसी आज मुश्किल है
समय बदला, जगह बदली क्यों रिश्तें आज बदले हैं
जिसे देखो ,बही क्यों आज मायूसी में रहता है
दुश्मन ,दोस्त रंग अपना, समय पर आज बदले हैं
जब जीवन के सफ़र में जो पाया है सहेजा है
खोया है उसी की चाह में ,ये दिल क्यों मचले है
समय ये आ गया कैसा कि मिलता अब समय ना है
कि रिश्तों को निभाने के अब हालात बदले हैं
ग़ज़ल प्रस्तुति:
मदन मोहन सक्सेना
वाह बहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंबधाई
aagrah hai mere blog main sammlit hon
बहुत सुंदर ग़ज़ल
जवाब देंहटाएंनई स्थितियों के साथ पुरानी धारणायें बदलती जा रही है-समय का पहिया घूमेगा ही!
जवाब देंहटाएंbahut sundar .....
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर ग़ज़ल...
जवाब देंहटाएंबहुत व्यावहारिक बातें कही हैं आपने अपनी इस रचना के माध्यम से। बहुत-बहुत बधाई............
जवाब देंहटाएंरिश्तों को निभाने के अब हालात बदले हैं....................बहुत सुन्दर ग़ज़ल.
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर ग़ज़ल
जवाब देंहटाएंसटीक....बधाई!
जवाब देंहटाएंprasangik abhivyakti deti kavita
जवाब देंहटाएंprasngik abhivyakti hai apki sundar kavita
जवाब देंहटाएंदिलों के दरमीया है दीवार क्यू
जवाब देंहटाएंइक अमन के लिए इतनी तकरार क्यू
बहुत उम्दा सर
जब जीवन के सफ़र में जो पाया है सहेजा है
जवाब देंहटाएंखोया है उसी की चाह में ,ये दिल क्यों मचले है
मिल जाये तो मिट्टी है को जाये तो सोना है ।
समय ये आ गया कैसा कि मिलता अब समय ना है
कि रिश्तों को निभाने के अब हालात बदले हैं
सही कहा ।