मंगलवार, 22 दिसंबर 2015

ग़ज़ल ( दर्द से मेरे रिश्ते पुराने लगतें हैं)




 
वह  हर बात को मेरी क्यों दबाने लगते हैं
जब हकीकत हम उनको समझाने लगते हैं

जिस गलती पर हमको वह  समझाने लगते है.
बही गलती को फिर वह  दोहराने लगते हैं

आज दर्द खिंच कर मेरे पास आने लगतें हैं
शायद दर्द से मेरे रिश्ते पुराने लगतें हैं

दोस्त अपने आज सब क्यों बेगाने  लगतें हैं
मदन दुश्मन आज सारे जाने पहचाने लगते हैं

उनकी मुहब्ब्बत का असर कुछ ऐसा हुआ है
ख्याल आने पे बिन बजह हम मुस्कराने लगते हैं

 

ग़ज़ल ( दर्द से मेरे रिश्ते पुराने लगतें हैं)
मदन मोहन सक्सेना

मंगलवार, 15 दिसंबर 2015

मेरी ग़ज़ल जय विजय ,बर्ष -२ , अंक ३ ,दिसम्बर २०१५ में प्रकाशित


प्रिय मित्रों मुझे बताते हुए बहुत ख़ुशी हो रही है कि मेरी ग़ज़ल जय विजय ,बर्ष -२ , अंक ३  ,दिसम्बर   २०१५ में
प्रकाशित हुयी है . आप भी अपनी प्रतिक्रिया से अबगत कराएँ .








ग़ज़ल (माँ का एक सा चेहरा)

बदलते बक्त में मुझको दिखे बदले हुए चेहरे
माँ का एक सा चेहरा , मेरे मन में पसर जाता

नहीं देखा खुदा को है ना ईश्वर से मिला मैं हुँ
मुझे माँ के ही चेहरे मेँ खुदा यारों नजर आता

मुश्किल से निकल आता, करता याद जब माँ को
माँ कितनी दूर हो फ़िर भी दुआओं में असर आता

उम्र गुजरी ,जहाँ देखा, लिया है स्वाद बहुतेरा
माँ के हाथ का खाना ही मेरे मन में उतर पाता

खुदा तो आ नहीं सकता ,हर एक के तो बचपन में
माँ की पूज ममता से अपना जीबन , ये संभर जाता

जो माँ की कद्र ना करते ,नहीं अहसास उनको है
क्या खोया है जीबन में, समय उनका ठहर जाता


मदन मोहन सक्सेना