बुधवार, 26 दिसंबर 2012

ग़ज़ल(सोच)



 ग़ज़ल(सोच)


कैसी सोच अपनी है किधर हम जा रहें यारों
गर कोई देखना चाहें बतन मेरे बो आ जाये

तिजोरी में भरा धन है मुरझाया सा बचपन है
ग़रीबी भुखमरी में क्यों जीबन बीतता जाये

ना करने का ही ज़ज्बा है ना बातों में ही दम दीखता
हर एक दल में सत्ता की जुगलबंदी नजर आयें .

कभी बाटाँ धर्म ने है कभी जाति में खो जाते
हमारें रह्नुमाओं का, असर सब पर नजर आये

ना खाने को ना पीने को ,ना दो पल चैन जीने को
ये कैसा तंत्र है यारों , ये जल्दी से गुजर जाये


ग़ज़ल प्रस्तुति:
मदन मोहन सक्सेना

मंगलवार, 18 दिसंबर 2012

ग़ज़ल (मेरे मालिक मेरे मौला)




ग़ज़ल (मेरे मालिक मेरे मौला)


मेरे मालिक मेरे मौला ये क्या दुनिया बनाई है
किसी के पास सब कुछ है मगर बह खा नहीं पाये


तेरी दुनियां में कुछ बंदें करते काम क्यों गंदें
कि किसी के पास कुछ भी ना, भूखे पेट सो जायें


जो सीधे सादे रहतें हैं मुश्किल में क्यों रहतें है
तेरी बातोँ को तू जाने, समझ अपनी ना कुछ आये


ना रिश्तों की महक दिखती ना बातोँ में ही दम दीखता
क्यों मायूसी ही मायूसी जिधर देखो नज़र आये


तुझे पाने की कोशिश में कहाँ कहाँ मैं नहीं घूमा
जब रोता बच्चा मुस्कराता है तू ही तू नजर आये


गुजारिश अपनी सबसे है कि जीयो और जीने दो
ये जीवन कुछ पलों का है पता कब मौत आ जाये



ग़ज़ल प्रस्तुति:
मदन मोहन सक्सेना

मंगलवार, 11 दिसंबर 2012

ग़ज़ल(खेल जिंदगी)

ग़ज़ल(खेल जिंदगी)

दिल के पास हैं लेकिन निगाहों से वह  ओझल हैं
क्यों असुओं से भिगोने का है खेल जिंदगी। 

जिनके साथ रहना हैं ,नहीं मिलते क्यों दिल उनसे
खट्टी मीठी यादों को संजोने का है खेल जिंदगी।


किसी के खो गए अपने, किसी ने पा लिए सपनें
क्या पाने और खोने का है खेल जिंदगी।


उम्र बीती और ढोया है, सांसों के जनाजे को
जीवन सफर में हँसने रोने का
है  खेल जिंदगी।


किसी को मिल गयी दौलत, कोई तो पा गया शोहरत
मदन बोले , काटने और बोने का ये खेल जिंदगी।




ग़ज़ल प्रस्तुति:
मदन मोहन सक्सेना