(एक )
अपने थे , वक़्त भी था , वक़्त वह और था यारों
वक़्त पर भी नहीं अपने बस मजबूरी का रेला है
(दो )
वक़्त की रफ़्तार का कुछ भी भरोसा है नहीं
कल तलक था जो सुहाना कल बही विकराल हो
(तीन )
बक्त के साथ बहना ही असल तो यार जीबन है
बक्त को गर नहीं समझे बक्तफिर रूठ जाता है
(चार )
बक्त कब किसका हुआ जो अब मेरा होगा
बुरे बक्त को जानकर सब्र किया मैनें
(पांच)
बक्त के साथ बहने का मजा कुछ और है प्यारे
बरना, रिश्तें काँच से नाजुक इनको टूट जाना है
(छह )
वक्त की मार सबको सिखाती सबक़ है
ज़िन्दगी चंद सांसों की लगती जुआँ है
(सात)
मेहनत से बदली "मदन " देखो किस्मत
बुरे वक्त में ज़माना किसका हुआ है
(आठ)
बक्त ये आ गया कैसा कि मिलता अब समय ना है
रिश्तों को निभाने के अब हालात बदले हैं
(नौ)
ना खाने को ना पीने को ,ना दो पल चैन जीने को
ये कैसा वक़्त है यारों , ये जल्दी से गुजर जाये
वक्त बक्त की बात (मेरे नौ शेर )
मदन मोहन सक्सेना
हम आज तक खामोश हैं और वो भी कुछ कहते नहीं
दर्द के नग्मों में हक़ बस मेरा नजर आता है
देकर दुआएँ आज फिर हम पर सितम वो कर गए
अब क़यामत में उम्मीदों का सवेरा नजर आता है
क्यों रोशनी के खेल में अपना आस का पँछी जला
हमें अँधेरे में हिफाज़त का बसेरा नजर आता है
इस कदर अनजान हैं हम आज अपने हाल से
हकीकत में भी ख्वावों का घेरा नजर आता है
ये दीवानगी अपनी नहीं तो और फिर क्या है मदन
हर जगह इक शख्श का मुझे चेहरा नजर आता है
ग़ज़ल (देकर दुआएँ आज फिर हम पर सितम वो कर गए)
मदन मोहन सक्सेना
एक।
दर्द मुझसे मिलकर अब मुस्कराता है
जब दर्द को दबा जानकार पिया मैंने
दो.
वक्त की मार सबको सिखाती सबक़ है
ज़िन्दगी चंद सांसों की लगती जुआँ है
तीन.
समय के साथ बहने का मजा कुछ और है यारों
रिश्तें भी बदल जाते समय जब भी बदलता है
चार.
जब हाथों हाथ लेते थे अपने भी पराये भी
बचपन यार अच्छा था हँसता मुस्कराता था
प्रस्तुति:
मदन मोहन सक्सेना
हर जगह हर तरफ मौत दिखती है क्यों
ये जिंदगानी का कैसा फ़साना हुआ
मदन मोहन सक्सेना
प्रिय मित्रों मुझे बताते हुए बहुत
ख़ुशी हो रही है कि मेरी ग़ज़ल जय विजय ,बर्ष -२ , अंक ४ ,जनबरी २०१६ में प्रकाशित हुयी है .
आप भी अपनी प्रतिक्रिया से अबगत कराएँ .
ग़ज़ल (हक़ीकत)
बह हर बात को मेरी क्यों दबाने लगते हैं
जब हक़ीकत हम उनको समझाने लगते हैं
जिस गलती पर हमको बह समझाने लगते है
बह उस गलती को फिर क्यों दोहराने लगते हैं
दर्द आज खिंच कर मेरे पास आने लगते हैं
शायद दर्द से अपने रिश्ते पुराने लगते हैं
क्यों मुहब्बत के गज़ब अब फ़साने लगते हैं
आज जरुरत पर रिश्तें लोग बनाने लागतें हैं
दोस्त अपने आज सब क्यों बेगाने लगते हैं
मदन दुश्मन आज सारे जाने पहचाने लगते है
उनकी मुहब्बत का असर कुछ ऐसा हुआ है
ख्याल आने पे बिन बजह हम मुस्कराने लगते हैं।
ग़ज़ल:
मदन मोहन सक्सेना